
09/09/2025
🙏माता पिता एवं गुरुजनों के प्रति कृतज्ञता की भावना जीवन भर धारणा किये रहना आवश्यक है। यदि इन गुरुजनों का स्वर्गवास हो जाए तो भी मनुष्य की वह श्रद्धा स्थिर रहनी चाहिए। इस दृष्टि से मृत्यु के पश्चात पितृ जनों में मृत्यु की वर्ष तिथि के दिनः पर्व समारोहों पर श्राद्ध करने का श्रुति-स्मृतियों में विधान पाया जाता है।
🔷️श्रद्धा से श्राद्ध शब्द बना है। श्रद्धापूर्वक किये कार्य को श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती हैं श्रद्धा को प्रकट करने का जो प्रदर्शन होता है, वह श्राद्ध कहलाता है। जीवित पितरों और गुरुजनों के लिए श्रद्धा प्रकट करने- श्राद्ध करने के लिए, उनकी अनेक प्रकार से सेवा-पूर्जा तथा संतुष्टि की जा सकती है, परतु स्वर्गीय पितरों के लिए श्रद्धा प्रकट करने का, अपनी कृतज्ञता को प्रकट करने का कोई निमित्त बनाना पडता हैं।
🔶️यह निमित्त है-श्राद्ध। मृत पितरों के लिए कृतज्ञता के इन भावों का स्थिर रहना. हमारी संस्कृति की महानता को ही प्रकट करता है। जिनके सेवा-सत्कार के लिए हिंदुओं ने वर्ष में १५ दिन का समय पृथक निकाल लिया है। पितृ भक्ति का इससे उज्ज्वल आदेश और कहीं मिलना कठिन है।
🔷️श्रद्धा तो हिंदू धर्म का मेरूदंड है। हिंदू धर्म के कर्मकांडो में आहे से अधिक श्राद्धतत्व भरा हुआ हैं। सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र, पृथ्वी, अग्नि, जल, कुंआ, तालाब, नदी, मरघट, खेत, खलिहान, भोजन, चक्की, चूल्हा. तलवार, कलम, जेवर, रुपया, घडा, पुस्तक, आदि निर्जीव पदार्थों की विवाह या अन्य संस्कारों में अथवा किन्ही विशेष अवसरों पर पूजा होती है। यहाँ तक कि नाली या घूरे तक की पूजा होती है। तुलसी, पीपल, वट, आंवला आदि पेड, पौधे तथा गौ, बैल, घोडा, हाथी आदि पशु पूजे जाते हैं।
🔶️ इन पूजाओं में उन जन्पदार्थों या पशुओं को कोई लाभ नहीं होता, परंतु पूजा करने वाले के मन में श्रद्धा एवं कृतज्ञता का भाव अवश्य उत्पन्न होता है। जिन जडचेतन पदार्थों से हमें लाभ मिलता है, उनके प्रति हमारी बुद्धि में उपकृत भाव होना चाहिए और उसे किसी न किसी रूप में प्रकट करना ही चाहिए। यह श्राद्ध ही तो हैं।