01/03/2024
1.3.2024
मैंने एक स्त्री से पूछा, "आप पैसे क्यों कमाती हैं?" उसने कहा कि -- "हमें अपनी सोना चांदी कपड़े फैशन आदि की इच्छाएं पूरी करने के लिए पुरुषों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। उसमें हमें अपमान या पराधीनता लगती है, इसलिए हम अपने पैसे खुद कमाना चाहते हैं।" मैंने पूछा - "महीने में कितनी बार आपको पुरुषों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है?" वह बोली - "वीकेंड पर, अर्थात महीने में चार बार।"
मैंने उससे कहा कि -- "आपको महीने में चार बार हाथ फैलाना पड़ता है, उसमें आपको अपमान या पराधीनता लगती है। इसलिए आप अपने पैसे खुद कमाना चाहती हैं।" "पुरुषों को तो प्रतिदिन चार बार भोजन के लिए आपके आगे हाथ फैलाना पड़ता है। जैसे कि नाश्ता लाओ, भोजन लाओ, चाय लाओ, रात का भोजन लाओ। पुरुषों ने तो कभी नहीं कहा, कि "हमें बहुत अपमान या पराधीनता लगती है, हम भी अपना भोजन खुद बनाएंगे।"
और भी कितनी ही वस्तुओं के लिए पुरुषों को आपके आगे दिनभर हाथ फैलाना पड़ता है। "जैसे मेरे कपड़े लाओ, मेरे जूते लाओ, जुराबें लाओ, टाई लाओ, मेरा फोन लाओ, मेरा रुमाल लाओ इत्यादि।"
पुरुष तो आपसे 40/50 गुना अधिक हाथ फैलाते हैं। आप महीने में चार बार और वे प्रतिदिन छ: आठ बार। सोचिए, "जब वे हर रोज आपके आगे अनेक बार हाथ फैला सकते हैं, और कभी नहीं कहते, कि "हम अपना भोजन खुद बनाएंगे।" "तो महीने में यदि आपको भी चार बार उनके आगे हाथ फैलाने पड़ें, तो इसमें कौन सी बड़ी मुसीबत है?"
पुरुष भी तो दिनभर आपसे मांगते रहते हैं। वे इसमें अपमान या पराधीनता अनुभव नहीं करते। "वे परिवार को परिवार समझ कर चलते हैं। इसलिए महिलाओं को भी परिवार को परिवार समझ कर चलना चाहिए, और "अपमान या पराधीनता लगती है" ऐसी अनुचित अनुभूति न तो करनी चाहिए और न ही कहनी चाहिए।"
"जहां सब लोग मिलजुल कर एक दूसरे का सहयोग करते हैं, एक दूसरे की सेवा करते हैं, एक दूसरे के लिए त्याग करते हैं, एक दूसरे के प्रति समर्पण करते हैं, उसी को तो ''परिवार' कहते हैं। इसी परिवार में तो आनंद है।"
वास्तव में माता-पिता को अपनी बेटियों को यह सिखाना चाहिए, कि "ससुराल में जाकर परिवार की तरह से रहना। केवल अपनी इच्छाएं पूरी करने के लिए अपने पारिवारिक कर्तव्यों की बलि मत चढ़ा देना।" "परंतु आजकल माता-पिता अपनी बेटियों को ऐसा नहीं सिखाते। उसी का यह दुष्परिणाम है, जो कि महिलाएं अपने पैसे खुद कमाना चाहती हैं।" और "इससे महिलाओं का अपना स्वास्थ्य बिगड़ रहा है, उनकी सुख शांति और सुरक्षा भी खतरे में है, परिवार का सुख भी लगभग नष्ट हो चुका है। बच्चों का स्वास्थ्य और चरित्र भी नष्ट हो रहा है। जब माताएं बच्चों को प्रेम नहीं देती, उनकी देखभाल ठीक से नहीं करती, उनको अच्छे संस्कार नहीं देती, तो इसी का परिणाम आगे चलकर उन्हें भुगतना पड़ता है। उन बच्चों का माता-पिता से वह संबंध ही नहीं बन पाता, जो होना चाहिए। जिसका परिणाम माता पिता को बुढ़ापे में भोगना पड़ता है, कि वे बच्चे बड़े होकर अपने माता-पिता को कोई सम्मान और सेवा नहीं देते। वे भी भोगवादी बनकर माता पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं। इन हानियों को महिलाएं समझें।"
"थोड़े से पैसे कमा कर आप जितना सुख भोगते हैं, वह क्षणिक है। उसका मूल्य कम है। और जो परिवार का संगठन सेवा और बच्चों को संस्कार देकर उनका उत्तम निर्माण करना है, उनके स्वास्थ्य की रक्षा करना, उन्हें एक अच्छा देशभक्त ईमानदार चरित्रवान ईश्वरभक्त उत्तम नागरिक बनाना, इसमें जो सुख मिलता है, वह बड़ा है। इसका मूल्य अधिक है। छोटे सुख के लिए, बड़े सुख को नहीं छोड़ देना चाहिए, क्योंकि इसमें बुद्धिमत्ता नहीं है।"
वास्तव में स्त्रियों की सोच आजकल इतनी बिगड़ चुकी है, कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए परिवार और संसार का विनाश कर दिया है। "अपने बच्चों का ठीक से पालन नहीं कर रही। बच्चे पैदा करना और उनका पालन करना तो स्त्रियों का ही काम है, या यह भी पुरुष करेंगे?"
मैं जानता हूं, कि कुछ स्त्रियां मेरे इस कथन से सहमत होंगी। और कुछ स्त्रियां मेरे कथन से असहमत हो कर मुझसे नाराज भी होंगी। कोई बात नहीं। मैं उनकी नाराजगी को सह लूंगा, फिर भी मैं स्त्रियों से विनम्र निवेदन करता हूं, कि "वे सच्चाई को स्वीकार करें। अपने कर्तव्यों का ठीक प्रकार से पालन करें। इसलिए हम उनका सम्मान करते हैं, और उन्हें उनका कर्तव्य याद दिलाना चाहते हैं, कि "वे अपने छोटे-छोटे स्वार्थों की पूर्ति करने में, देश दुनियां का विनाश न करें। क्योंकि देश दुनियां का निर्माण और विनाश दोनों ही स्त्रियों के हाथ में हैं।" "भोगवादी बनने से संसार का कल्याण नहीं होगा, बल्कि संसार में दुख ही बढ़ेंगे. यदि देखना हो, तो पश्चिमी देशों की सभ्यता में आप देख सकते हैं।"
"इसलिए माता-पिता को अपनी सोच बदलनी चाहिए। और अपनी बेटियों को भोगवादी न बनाकर, माता जीजाबाई माता सीता आदि के समान एक उत्तम बेटी का निर्माण करना चाहिए, जो श्रद्धापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करके देश दुनियां को सुख दे सके।"
---- "स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़ गुजरात।"