03/08/2024
भारतीय न्याय व्यवस्था
"प्रोसेस इस पनिशमेंट"
चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया ने कहा
मतलब यह कि कोर्ट की कार्य प्रणाली ही सजा है। यह बात तो पिछले 50 साल से अखबारों में ,लेखों में ,बड़े-बड़े लेखकों के उपन्यासों में ,और कवियों की कविताओं में, यहां तक कि फिल्मों में भी बार-बार कही गई है।
कोई कहता है कि कोर्ट में तारीख पर तारीख पर तारीख पर तारीख पर तारीख मिलती है। न्याय नहीं मिलता।
मुंशी प्रेमचंद कहते हैं कि अदालत में न्याय सिर्फ पैसे वालों को मिलता है। गरीबों के लिए न्याय की कोई व्यवस्था नहीं है।
कोई कहता है जब अन्याय करना हो तो मुकदमा दर्ज कर दो। बहुत सालों तक फैसला ही नहीं होगा । कहावत है कि कोर्ट मे घसीटेंगे । मतलब कोर्ट धक्के खाने की जगह है।
एक बार एक जज साहब हमारे इलाज में थे उनका कहना था कि डॉक्टर साहब बहुत जल्दी हमें ठीक कीजिए हमने कहा आपके यहां तो सालों बीत जाते हैं कुछ भी परिणाम नहीं निकलता यहां आपको जल्दी पड़ी हुई है जज साहब बोले कि हमारे विभाग का हाल इस कहानी से समझिए
कि एक बार जंगल में सारे जीव जंतु भागे चले जा रहे थे। तो किसी ने चींटी से पूछा तुम क्यों भाग रही हो। चींटी बोली, तुम्हें पता नहीं है कि हाथी पर FIR हो गई है। तो पूछने वाले ने कहा लेकिन तुम क्यों भाग रही हो। चींटी बोली, अगर मुझे पकड़ लिया गया तो यह साबित करने में कि मैं हाथी नहीं हूं। मेरी जिंदगी ही खत्म हो जाएगी।
इसी संदर्भ में
कोई कवि कहता है कि
मेरे बेटे कचहरी न जाना।
भले रूखी सूखी, खाकर निभाना
भले जाके जंगल में मंगल मनाना। मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी न जाना
कचहरी न जाना।
आज से लगभग 60 साल पहले रमई काका ने कहा
"अब तो यही मसल भय सच
9 की लकड़ी 90 खर्च"
किसी सिविल के मुकदमे में₹9 की लकड़ी के लिए कोर्ट में 90 रुपए खर्च हुए होंगे।
मुकदमे में बर्बाद हो गए
ऐसा कहते हुए भी कई लोग पाए जाते हैं।
कोर्ट में अपील स्वीकृत होने का मतलब एक सफलता माना जाता है जबकि इसकी तुलना बीमारी के इलाज से करें तो अपील स्वीकृत होना डॉक्टर या अस्पताल का पर्चा बनने के बराबर है इस बात को साबित करता है की हां! अब आपका इलाज होगा अगर इन दोनों की तुलना की जाए तो जैसे ही मरीज का पर्चा बन जाए उन लोगों में खुशी की एक लहर दौड़ जानी चाहिए जैसे अपील स्वीकृत होने पर होती है।
न्याय ऐसी चीज है कि उसका महत्व भोजन से भी अधिक है। आदमी भूखे रहना पसंद कर लेगा लेकिन अन्याय को बर्दाश्त करना किसी को भी अच्छा नहीं लगता।
राजा का एक ही कर्तव्य होता है कि लोगों को न्याय दिलाए। पुरानी कहानियों में अक्सर कहा जाता था की एक बड़ा न्याय प्रिय राजा था। इसका मतलब है राजा का मतलब या राज्य का मतलब न्याय देने से होता है।
महाभारत में शांति पर्व में न्याय दिलाने के लिए न्याय दंड या राजदंड पर बड़ी लंबी व्याख्या की गई है। इसका अर्थ है की राजा के स्तर से न्याय ही सबसे महत्वपूर्ण है। बाकी सब काम व्यक्ति स्वयं करता है। केवल अन्याय से बचाना राजा का कार्य है।आजकल का राजा (सरकार) न्याय अन्याय से दूर है। न्याय का काम अदालत को सौंप दिया। यह अंग्रेजों की चालाकी और चतुराई थी। कि जनता से टैक्स तो सरकार वसूलेगी। लेकिन जब न्याय की जरूरत आए तो अपना पैसा खर्च करो और अदालत जाओ। पैसा खर्च करके कोर्ट में न्याय हासिल किया जा सकता है। लेकिन कोर्ट का, क्या हाल है यह सब लोग जानते हैं। मतलब यह हुआ कि सरकारों का जो मुख्य काम है। वह बिल्कुल नहीं हो रहा है ।
यह कहना कि सरकार आर्थिक प्रगति करती है या सरकार रोजगार देती है अधिकांश असत्य है। सरकार केवल ऐसी स्थितियों को पैदा कर सकती है जिसमे लोगों को रोजगार ,व्यवसाय और जीवन यापन के बाकी सारे कार्य करने में कोई बाधा न पैदा हो। भय मुक्त और बाधा रहित वातावरण, आर्थिक प्रगति को अपने आप ही रफ्तार दे देगा।
कुल मिलाकर सार यही है कि सरकार का काम न्याय देना है आज के समय में अगर इसी कसौटी पर सरकार को कसा जाए तो एक परसेंट से ज्यादा नंबर सरकार को नहीं मिलेंगे।
मुद्दई तो आदिकाल से परेशान है ही, जैसा कि ऊपर बहुत सारी कहावतों में कविताओं में उपन्यासों में कहा गया है।
कुछ दो-चार प्रतिशत वकीलों को छोड़कर बाकी वकीलों का भी हाल बहुत बुरा है। और चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया कह रहे हैं कि
"प्रोसेस इस पनिशमेंट"
इसका मतलब क्या हुआ। इसका मतलब यह है कि जितने भी प्रकार के लोग इस न्याय व्यवस्था से संबंधित है कोई भी खुश नहीं है। सभी परेशान हैं।
हल क्या है
इस समस्या का हल क्या है।
हल है ,इस समस्या को, इस कानून व्यवस्था को, आमूल चूल परिवर्तित करना। सैकड़ो महान जज रिटायर हो चुके हैं ।बहुत सारे कानून मंत्री बन चुके हैं बहुत सारे सोशियोलॉजी के समाजशास्त्र के विद्वान मौजूद हैं। लेकिन इस समस्या पर कोई भी, हल निकालने की दिशा में ,कोई काम हुआ मालूम नहीं पड़ता।
हर समस्या के लिए कोई न कोई आयोग गठित किया जाता है। कोई न कोई कमेटी गठित की जाती है ।लेकिन इस कानूनी अत्याचार को दूर करने के लिए कोई आयोग गठित नहीं किया गया कोई कमेटी गठित नहीं की गई।
वक्त की जरूरत है कि, इस न्याय व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हो।
बड़े-बड़े महान न्यायविद, बहुत बड़े-बड़े वकील, बहुत बड़े-बड़े समाज शास्त्री बहुत सारे राजनीतिज्ञ, इस विषय पर विचार करें ।एक आयोग गठित करें। पूरे समाज से भी सुझाव मांगे जाएं।
जो मुकदमों के भुक्त भोगी है और जो दूर से देखने वाले हैं। जो इस व्यवस्था में काम कर रहे हैं। सभी के सुझाव आमंत्रित किए जाएं।
संकल्प किया जाए कि इस व्यवस्था को बदलना बहुत जरूरी है। देशवासियों की सुख सुविधा के लिए सबसे जरूरी दो ही बातें हैं ।
एक तो "भ्रष्टाचार" को दूर करना.
इसके बिना कोई भी काम सफल नहीं हो सकता। दूसरा है "न्याय व्यवस्था" को परिवर्तित करना और ऐसी व्यवस्था बनाना जो पीड़ित के हित में शीघ्रता से और निश्चित ही कार्य करें।
पाठकों से निवेदन है इस विषय पर कमेंट अवश्य करें मौन धारण न करें अपना पक्ष अवश्य रखें।