
18/09/2025
आज के मरीज़ को देखकर अक्सर लगता है कि बीमारी उसके शरीर में नहीं, बल्कि उसकी भूमिकाओं में है।
सुबह से लेकर रात तक वह कई किरदारों में बंटा रहता है।
एक ही इंसान पिता भी है, बेटा भी, पति भी, नौकरीपेशा भी और समाज का जिम्मेदार सदस्य भी।
भूमिकाएँ नई नहीं हैं, इंसान हमेशा से इन्हें निभाता आया है।
लेकिन फर्क यह है कि पहले इन भूमिकाओं की गति धीमी थी, सीमाएँ स्पष्ट थीं और अपेक्षाएँ सीमित।
आज वही भूमिकाएँ विज्ञान और तकनीक की रफ्तार में इतनी तेज़ हो चुकी हैं कि मन और शरीर उस बोझ को झेल ही नहीं पा रहे।
पुराने समय के समाज की एक खासियत थी - लोगों को सीमाओं का ज्ञान था,ये भी कह सकते हैं,कम एक्सप्लोर किया था ।
दिन का काम दिन में ही सिमट जाता था, रात विश्राम के लिए होती थी।
गाँव का दायरा छोटा था, रिश्तों की अपेक्षाएँ तय थीं।
तुलना बहुत कम थी और जीवन का तालमेल एक निश्चित लय में चलता था।
भूमिकाओं के बीच खाली जगह थी, जिससे मन और शरीर को संतुलन मिल जाता था।
आज का समय उस खालीपन को निगल चुका है।
ऑफिस घर तक पीछा करता है, ईमेल और व्हाट्सएप हर वक्त टोकते हैं।
बच्चे माता–पिता से पहले से कहीं ज़्यादा उम्मीद करते हैं, कॉम्पेरिजन कल्चर उन्हें और माँग करने के लिए उकसाता है।
पत्नी चाहती है कि पति इतना शक्तिशाली हो कि PMO हिला दे और साथ ही पल्लू में बैठा रहे।
पति चाहता है बीबी पैसा भी कमा ले पर मम्मी की तरह सारा काम और परिवार भी मैनेज कर ले ।
पर यह संभव नहीं है।
हर चीज़ अपनी क़ीमत लेती है।
शक्ति और सामर्थ्य की कीमत है दूरी और व्यस्तता, और निकटता की कीमत है सीमित सामर्थ्य।
इंसान दोनों को एक साथ जी ही नहीं सकता।
हम अक्सर नेताओं, बड़े व्यापारियों या अधिकारियों के बच्चों को देखकर कहते हैं कि उन्हें सब मिल गया।
पर भूल जाते हैं कि ऐसे बच्चों को अपने पिता से मिलने के लिए इंतज़ार करना पड़ता था, कभी-कभी तो अपॉइंटमेंट या परमिशन तक लेनी पड़ती थी।
जो चमक हमें बाहर से दिखती है, उसकी एक छुपी हुई कीमत होती है।
जीवन में हर चीज़ अपनी कीमत लेती है।
यहीं से शुरू होता है Role Conflict और Role Strain।
एक भूमिका दूसरी से टकराती है, और एक ही भूमिका में उलझी अपेक्षाएँ इंसान को खींचती हैं।
दिमाग़ लगातार कई दिशाओं में भागता रहता है।
तनाव हार्मोन (cortisol) हर समय ऊपर रहते हैं।
नींद टूटती है, मन चिड़चिड़ा हो जाता है और शरीर साइकोसोमैटिक बीमारियों में फँसने लगता है।
धीरे-धीरे यही दबाव एंजाइटी और डिप्रेशन में बदलता है।
डॉक्टर के सामने बैठा मरीज़ कहता है, “दवा दे दीजिए, सब ठीक हो जाए”, लेकिन दवा उसकी असली बीमारी को छू भी नहीं पाती।
पुराने समाज की ताक़त यही थी कि लोग मानते थे इंसान सब कुछ पूरा नहीं कर सकता।
आज हमने वही सीमा भुला दी है।
अब हर जगह परफेक्शन चाहिए।
लेकिन यही परफेक्शन सबसे बड़ी बीमारी बन गई है।
मानसिक शांति उसी को मिलेगी जो यह स्वीकार कर सके कि हर भूमिका पूरी तरह निभाना संभव नहीं।
कभी-कभी अधूरा छोड़ देना भी सेहत का हिस्सा है।
दवा से पहले यह समझ ही सबसे बड़ी चिकित्सा है।
क्योंकि शरीर की असली चिकित्सा वहीं से शुरू होती है जहाँ मन यह मान लेता है -
“मैं सब कुछ नहीं कर सकता, और यह ठीक है।”
Source : pradeep chaudhary