योग संस्कृति

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07/09/2025

नाभि तक गहरी श्वास ले ये अतिआवश्यक है।
गहरी सांसों से गुपचुप हो जाते हैं 7 बड़े बदलाव
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सांस ही प्राण है। इसलिए हमारे यहां ऑक्सीजन को भी प्राणवायु कहा गया है। यही वजह है कि सदियों से हमारी संस्कृति और रोजमर्रा के जीवन में प्राणायाम को प्रभावी माना गया है। नए दौर में विदेशी भी मानने लगे हैं कि यदि हमें अच्छा स्वास्थ्य और जीवन चाहिए तो अपनी हर एक सांस पर ध्यान देना होगा। अपनी आने-जाने वाली संास पर ध्यान देने से न सिर्फ हम शारीरिक बल्कि मानसिक विकारों से भी दूर रह सकते हैं। सांस हमारे तनाव, बेचैनी और ब्लड प्रेशर को नियंत्रित कर सकती है। अच्छी सांस तन और मन में सात आश्चर्यजनक बदलाव ला सकती है लेकिन इसके लिए अभ्यास की जरूरत है।

दिमागी क्षमता में वृद्धि

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में हुए शोध के अनुसार मेडिटेशन से हमारे मस्तिष्क का आकार विस्तार लेता है (कार्टेक्स हिस्से की मोटाई बढऩे लगती है)। इससे मस्तिष्क की तार्किक क्षमता में बढ़ोतरी होती है। सोने के बाद गहरी सांस लेने का अभ्यास दिमागी क्षमता को बढ़ाता है।



दिल की धडक़न में सुधार

मेडिकल साइंस की रिसर्च में यह पाया गया कि दिल की दो धडक़नों के बीच अंतर होता है जिसे लो हार्ट रेट वैरिएबिलिटी के नाम से जाना जाता है। ऐसे में दिल के दौरा का अंदेशा बहुत ज्यादा होता है। गहरी सांस वाले प्राणायाम के जरिए इस स्थिति को सुधारा जा सकता है।



तनाव में कमी, मन को शांति

कमजोर सांस तनाव की स्थिति में शरीर को लडऩे की पूरी ताकत नहीं देती। लेकिन यदि केवल सांसों पर ध्यान लगाएं तो मन की आकुलता घटती है। गहरी सांस से नर्वस सिस्टम उत्तेजना, प्रेरणा वाली पैरा सिम्पेथेटिक स्थिति में चला जाता है, जो मन को आराम, सुकून की स्थिति होती है।



नकारात्मकता से मुक्ति

अधिकांश लोग जब पीड़ा या तनाव में होते हैं तो उनकी सांसे उखड़ी रहती हैं। यह हमारे शरीर की कुदरती प्रतिक्रिया होती है। अपनी सांसों पर ध्यान केंद्रित करने के किसी भी व्यायाम से बेचैनी, अवसाद, गुस्से और घृणा से भरे नकारात्मक विचारों को दूर करने में मदद मिलती है।

चुनौती की घड़ी में संयम

विदेशी पत्रिका ‘टीचिंग एंड लर्निंग’ में प्रकाशित एक स्टडी में बताया गया कि जो बच्चे अपनी परीक्षा से पहले गहरी सांस लेना सीख जाते हैं उनका ध्यान बढ़ता है और याद किए पाठ को दोहराने की योग्यता में सुधार होता है।

ब्लड प्रेशर पर काबू

हर रोज महज कुछ मिनटों के लिए गहरी सांस लेने और छोडऩे का अभ्यास काफी हद तक आपके ब्लड प्रेशर को नियंत्रित कर सकता है। गहरी सांस लेने से शरीर शांत स्थिति में आता है। ऐसा होने पर इससे रक्त वाहिनियों को अस्थायी रूप से खून को पूरे शरीर में नियंत्रित दबाव के साथ पहुंचाने में मदद मिलती है।

जीन में सकारात्मक बदलाव

यह सबसे बड़ा और बेहद महत्वपूर्ण बदलाव है जो सचमुच इस तरह होता है कि हमें पता ही नहीं चलता। संभवत: इसके अच्छे परिणाम हमें हमारी आने वाली पीढिय़ों में नजर आते हैं। योगा, प्राणायाम और ध्यान के माध्यम से सांसों की गति को नियंत्रित करने से हमारी जेनेटिक संरचना में प्रभावी बदलाव होते हैं। इसमें केवल तन ही नहीं बल्कि मन के स्तर पर भी परिवर्तन होते हैं। इससे हमारे अच्छे जीन ज्यादा संवेदनशील बनते हैं।



भारतीय मनीषियों के कथन

सांस भावों से जुड़ी है। भाव को बदलो, सांस बदल जाएगी। क्रोध आए लेकिन अपनी सांस को डोलने मत देना। ऐसे समय में सांस को स्थिर रखना और शांत रहना। रजनीश ओशो, दार्शनिक

प्राणायाम फेफड़ों को स्वस्थ रखने वाला, रक्त को शुद्ध, शरीर के अंग-प्रत्यंगों को चैतन्यता देने वाला और पाचन शक्ति बनाए रखने वाला है इसलिए यह आरोग्य और दीर्घ जीवन देने वाला भी है।

#योगसंस्कृति #स्वस्थभारतअभियान

02/09/2025

*कुंडलिनी के सात चक्र और बीमारी*
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हिंदू धर्म के ये देवी-देवता हमारे शरीर के अंग और भावना की प्रकृति के आधार पर हमारे शरीर में भी सूक्ष्म रूप से मौजूद होते हैं और अगर आपको उन चक्रों की ऊर्जा को हील करना या संतुलित करना है, ताकि आप स्वस्थ रहें ।

मनुष्य की कुंडलिनी के सात चक्रों से कुछ देवी-देवताओं को उन चक्रों की प्रकृति और ऊर्जा संतुलन की आवश्यकता के आधार पर जोड़ा गया है।

1- मूलाधार चक्र
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सातों चक्रो में सबसे पहले मूलाधार चक्र का आता है मूलाधार चक्र के खराब होने से मुख्यता प्रोस्टेट, गठिया,वेरिकोज वेन, कूल्हे की समस्या, घुटनों में समस्या,खाना अच्छा न लगना, लूज मोशन या कब्ज की समस्या, बवासीर आदि है।

2- स्वाधिष्ठान चक्र
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कुण्डलिनी के द्वितीय चक्र स्वाधिष्ठान चक्र के खराब होने से निम्न बीमारी होती है। हर्निया, आतों की दिक्कत, महिलाओं में मासिक धर्म, खून की कमी, नपुंसकता, गुर्दे की समस्या, मूत्र संबंधि रोग आदि।

3- मणिपुर चक्र
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कुंडली के तृतीय चक्र मणिपुर चक्र के खराब होने से निम्न बीमारी होती है। लीवर सिरोसिस, फैटी लीवर, शुगर, किडनी संबंधित समस्या, पाचन संबंधी समस्या, पेट में गैस, अल्सर आदि।

4- अनाहत चक्र
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कुंडली के चतुर्थ चक्र हार्ट चक्र के खराब होने से ह्रदय की बीमारी,बी पी हाई या लो होना, लंग्स में दिक्कत, स्तन कैंसर, छाती में दर्द, रक्षाप्रणाली में विकार आदि।

5- विशुद्ध चक्र
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थ्रोट चक्र के खराब होने से मुख्यतः निम्न बीमारी होती है । थायराइड, जुकाम, बुखार, मुँह, जबड़ा, जिव्हा, कंधा और गर्दन, हार्मोन राजोवृति आदि।

6- आज्ञा चक्र
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षष्ठ चक्र आज्ञा चक्र के खराब होने से निम्न बीमारी होती हैं। आँख, कान, नाक, हार्मोन्स की प्रोब्लम, सिर दर्द, अनिंद्रा, अर्ध कपारी (माइग्रेन) आदि।

7- सहस्त्रार चक्र
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क्राउन चक्र के खराब होने से निम्न बीमारी होती है। मानसिक रोग, नाडी रोग, मिर्गी, अधरंग, लकवा, सिर दर्द, हाथ पैरों का सुन्न होना।

#योगसंस्कृति

 #योगसंस्कृति   #स्वस्थभारतअभियान
14/08/2025

#योगसंस्कृति


#स्वस्थभारतअभियान

13/02/2025

🌼⚜️ किस रोग में कौन सा आसन करें ⚜️🌼
1 पद्मासन- मन की शांति, मन को एकाग्र करने के लिए, यौन रोग, हर्निया, वीर्यदोष, आँख, आंमवात जठराग्नि, वातव्याधि, अजीर्ण, आँतों के रोग, ब्रह्मचर्य, बवासीर आदि।

2 शवासन - उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, अनिद्रा, सिरदर्द, शारीरिक थकावट, तनाव, तुतलाहट, मानसिक थकान, आदि

3 अश्वासन - मोटापा, बवासीर, कमर दर्द, कब्ज, नाभि टलना, सर्वाइकल स्पाण्डलाइटिस, तनाव, शारीरिक थकावट आदि।

4 उत्तानपादासन - मोटापा, बवासीर, नाभि टलना, गर्भाशय दोष, घुटने का दर्द, सायटिका, हार्निया, पेटदर्द, श्वास रोग, आँत उतरना, गैस, कमर दर्द, टाँगों की दुर्बलता, कब्ज, और मोटापा कम करने के लिए हृदय, श्वास रोग, अतिसार, दस्त आदि।

5 पवनमुक्तासन - मोटापा, गैस, यकृत, गठिया, शुगर, हल्का पेट दर्द, तनाव आँतों के रोग, अम्लपित्त, सियाटिका, चर्बी कम करना, तिल्ली, प्लीहा, पर प्रभाव स्लिप डिस्क, हृदय, गर्भाशय, कटि पीडा, स्त्रीरोग, आदि।

6 पश्चिमोत्तानासन - अजीर्ण, मोटापा, कब्ज, मदाग्नि, मधुमेह, आमवात, कृमि, दोष, हार्निया, पौरुष शक्ति, वीर्य दोष, बौनापन, बवासीर, गठिया, जठराग्नि, कद, पृष्ठभाग की मांसपेशिया आदि।

7 चक्रासन- मोटापा, कमर दर्द, कब्ज, मधुमेह, नाभि टलना, आमवात, कृमि दोष, गर्भाशय रोग, बौनापन, कटिपीडा, श्वास रोग, सिरदर्द, नेत्र रोग, सर्वाइकल स्पाण्डलाइटिस, रीड की हड्डी, गर्भाशय, जठर, आँत आदि।

8 सर्वांगासन - अनिद्रा, बवासीर, गैस, नेत्ररोग, वीर्यदोष, सूजन, गला, यकृत, खाँसी, मोटापा, दुर्बलता, कृमि, गर्भाशय दोष, फेफडे, कद वृद्धि, दमा, उदर, हर्निया, हल्का पेट दर्द, बाल सफेद, पिट्यूटरी ग्रंथि, अजीर्ण-बदहजमी, जुकाम, तिल्ली-प्लीहा, पांडु रोग, तनाव, मंदाग्नि, कब्ज, कुष्ठ, शुक्रग्रंथि, एड्रिनल ग्रंथि, थायरायड आदि

9 हलासन - मोटापा, अनिद्रा, कब्ज, दमा, मधुमेह, गला, यकृत, तनाव, गर्भाशय दोष, पांडु, बौनापन, दुर्बलता, पौरूष शक्ति, बौनापन, जुकाम, कंठमाला, अजीर्ण, मंदाग्नि, खांसी, गुल्म, वात, कब्ज, बुढापा, जुकाम, तिल्ली-प्लीहा, मानसिक रोग, हृदय रोग, थायरायड, डायबिटीज, स्त्रीरोग, मेंरूदण्ड, अग्नाशय, रीढ, अग्नाशय, रीड की हड्डी, आदि। सावधानी- बढी तिल्ली, यकृत, उच्च रक्तचाप, सर्वाइकल स्पाण्डलाइटिस, मेंरूदण्ड मे टीवी वाले न करे।

10 मत्स्यासन - बवासीर, अजीर्ण बदहजमी, जुकाम, पैर, दमा, गला, सर्वाइकल व स्लिप डिस्क, मंदाग्नि, यकृत,फेफडे, गठिया, तनाव, मासिकधर्म, बाल सफेद, नाभिटलना, कब्ज, गठिया, मंदाग्नि, हार्निया, आँतों के रोग, थायरॉयड, पैराथायरॉयड, एड्रिनल ग्रंथि विकार आदि।

11.मयूरासन -मोटापा, अजीर्ण-बदहजमी, कृमि, पांडु, मंदाग्नि, कब्ज, गैस, आमवात, जठराग्नि, बवासीर, तिल्ली, यकृत, गुर्दे, अमाशय, अग्नाशय, मधुमेह आदि।

12 उष्ट्रासन - कमरदर्द, मोटापा, गैस मंदाग्नि, दमा, गला, सर्वाइकल व स्लिप डिस्क, फेफडे, गठिया, नेत्र रोग, पांडु, बौनापन, सियाटिका, श्वसन तंत्र, थायरॉयड आदि।

13. वज्रासन - गैस, मंदाग्नि, मधुमेह, फेफडे, पांडु (पीलिया), साईटिका, वीर्य दोष, अपचन, अम्लपित्त, कब्ज आदि ।

14. सुप्त वज्रासन - गला, सर्वाइकल, स्लिप डिस्क, गठिया, मासिकधर्म, कमर दर्द, कब्ज, थायराइड, गले के रोग दमा, तनाव, पौरूष-शक्ति, खाँसी, पेट, बडी आँत, नाभि, गुर्दों के रोग बवासीर, फेफडे, आदि।

15.अर्द्धमत्स्येन्द्रासन - कमरदर्द, अजीर्ण बदहजमी, मधुमेह, आमवात, कृमि, फेफडे, पौरुष शक्ति, कब्ज, सायाटिका, वृक्कविकार, सर्वाइकल व स्लिप डिस्क, रक्त संचरण, उदरविकार, आँत, पृष्ठदेश आदि।

16 गौमुखासन - दमा, फेफडे, कमरदर्द, हृदय दुर्बलता, गठिया, सर्वाइकल व स्लिप डिस्क, सन्धिवात, मधुमेह, यकृत, हृदय रोग, अनिद्रा, रीढ का टेढापन, गुर्दे, स्वप्नदोष, गर्दन तोड बुखार, बहुमूत्र अंडकोष वृद्धि, आंत्र वृद्धि, बहुमूत्र, धातुरोग तथा स्त्री रोग आदि।

17. भुजंगासन - अजीर्ण, बदहजमी, मंदाग्नि, मधुमेह, नाभि टलना, सर्वाइकल, व स्लिपडिस्क, गला, यकृत, गर्भाशय दोष, पांडु, तिल्ली-प्लीहा, खाँसी, बौनापन, कमरदर्द, दमा, कटिवात, जांघों का दर्द मासिक धर्म, कुबडापन आदि।

18.शलभासन कब्ज, मंदाग्नि, यकृत, रीढ तथा कमर का दर्द, अजीर्ण, दुर्बलता, मेरूदण्ड के निचले भाग, सियाटिका का दर्द आदि।

19 नौकासन - मोटापा अजीर्ण-बदहजमी, मधुमेह, नाभि टलना, हृदय, फेफडे, आमाशय, अग्नाशय आँत, यकृत आदि।

20 धनुरासन -मोटापा, कमरदर्द, वीर्यदोष, गठिया, नाभि टलना, बौनापन, शारीरिक थकावट, तनाव, अजीर्ण-बदहजमी, सायटिका, गैस, गुर्दे, सर्वाइकल, स्पॉण्डलाइटिस, उदर, आदि।

21 गरुडासन- गठिया, घुटने का दर्द, हर्निया, सायटिका, अण्डकोष वृद्धि, पौरूष ग्रंथि, मूत्ररोग, गुर्दे, मोटापा, गुप्त रोगों में, हाइड्रोसिल, बवासीर, हाथ पैर की अन्य विकृति आदि (सूरज निकलने के बाद, सूरज डूबने से पहले, समय- 15-60 मि०)

22.योगमुद्रासन (1,2) मोटापा, अनिद्रा, बवासीर, गैस अजीर्ण-बदहजमी, वीर्य दोष, यकृत, गठिया, हल्का पेट दर्द, पौरुष शक्ति, कब्ज, फेफडे संबधी रोग, प्लीहा उदर, डायबिटीज, जठराग्नि, माईग्रेन आदि।

23. शीर्षासन - अनिद्रा, वीर्यदोष, जुकाम, मधुमेह, सूजन, खाँसी, कृमि, बाल सफेद, तनाव, गर्भाशय दोष, शिरपीडा, कान, आँख, नेत्र रोग, मोटापा, सिर के बाल उडना, झुर्रियां पडना, वीर्यपात, पिट्युटरी एवं पीनियल ग्रंथि, मेधा-स्मृति, प्रमेह, नपुंसकता, थायरॉयड, अमाशय, आँत, वेरिकोज वेन्स, कब्ज, हार्निया, यकृत, आदि।

24.ताडासन - बौनापन, सर्वाइकल, स्लिप डिस्क, कद आदि।

25 उत्कटासन - कमरदर्द, सूजन, कब्ज, गठिया, हार्निया, पथरी, घुटने का दर्द, सायाटिका, बेरी-बेरी, ब्रह्मचर्य, बवासीर आदि ।

26 अर्धकूर्मासन- अजीर्ण, कमरदर्द, उदररोग, आँव, अग्न्याशय, आदि।

27 शशकासन - कमरदर्द, तिल्ली, प्लीहा, पाचन शक्ति, थायरॉयड, स्त्रीरोग, हृदयरोग, तनाव, मानसिक रोग गर्भाशय आँत, यकृत अग्न्याशय, गुर्दो, मोटापा आदि।

28 जानुशिरासन (महामुद्रा) अजीर्ण, आँतों के रोग, कटिवात, मधुमेह, जांघो के रोग, तिल्ली, प्लीहा, पांडुरोग, नाभि पश्चिमोत्तासन के समान लाभ आदि।

29 पाद-हस्तासन - कमर दर्द, कटिवात, जांघों का दर्द, तिल्ली, प्लीहा, मानसिक रोग, कदवृद्धि, पेट आदि।

30 अर्धचंद्रासन - आँतों के रोग, कुबडापन, यकृत, प्लीहा, श्वसन तंत्र, दमा, थायरॉयड, सर्वाइकल, स्पाण्डलाइटिस, सियाटिका आदि ।

31 मण्डूकासन (1,2) डायबिटीज, उदर व हृदयरोग, अग्न्याशय आदि ।

32 मर्कटासन (1,2,3)- सर्वाइकल स्पाण्डलाइटिस, स्लिप डिस्क, सियाटिक, कमर दर्द, पेटदर्द, कब्ज, दस्त, गैस, नितम्ब, जोडो के दर्द आदि।

33.सिंहासन-थायरॉयड, टॉसिल, कान का रोग, गला रोग, हकलाना, तुतलाना आदि।

34 वक्रासन- डायबिटीज, कमर की चर्बी कम करने, यकृत व तिल्ली आदि।

35 बद्धपदासन - स्त्री व पुरूष की छाती विकास, हाथ, कंधे व सम्पूर्ण पृष्ठभाग, जठराग्नि, वातव्याधि, आदि।

36 बह्मचर्यासन - धातुरोग, स्वप्नदोष व प्रमेह, मधुमेह, ब्रह्मचर्य आदि।

37 वृक्षासन - मन की चंचलता स्नायुमंडल, वीर्य, नेत्र रोग, धातुरोग, कफ रोग, हृदय, फेफडे आदि।

38 तिर्यक् ताडासन - कटि प्रदेश लचीला, पार्श्व भाग की चर्बी को कम करना आदि।

39. कटि चक्रासन- कब्ज, आँत, गुर्दे, तिल्ली, अग्न्याशय, मासिक धर्म, कमर गर्दन, शरीर में जकडन आदि।

#योगसंस्कृति

 #पीनियल_ग्रंथि हमसे छिपे हुए सबसे बड़े रहस्यों में से एक है।रहस्य यह नहीं है कि ग्लैंडुला मौजूद है, रहस्य इसका कार्य है...
08/05/2024

#पीनियल_ग्रंथि हमसे छिपे हुए सबसे बड़े रहस्यों में से एक है।
रहस्य यह नहीं है कि ग्लैंडुला मौजूद है, रहस्य इसका कार्य है।

मेडिकल छात्रों को बताया जाता है कि यह एक निराश अंग है, लेकिन ऐसा नहीं है।
पीनियल ग्रंथि हमारी तीसरी आँख है, यह वह अंग है जिसके माध्यम से हम सपने देखते हैं और कुछ कल्पना करते हैं, और जब यह सक्रिय हो जाती है, तो यह अंग भी है जो हमें वास्तविकता के अन्य आयामों से जोड़ता है, एच। : यह हमें अन्य आयामों से और परे प्राणियों को एस्ट्रल यात्रा पर जाने की अनुमति देता है (हमारे भौतिक शरीर को छोड़कर हमारे एथेरियल शरीर के साथ यात्रा करने), स्पष्टता या टेलीपैथी जैसे मनोवैज्ञानिक कौशल विकसित करने और यात्रा करने के लिए समय पर यात्रा करने की क्षमता भी.. ..

दिव्य संबंध प्राप्त करने के लिए मंदिर हम में से प्रत्येक के भीतर है ....
पीनियल ग्लैंडुला (अर्थात अनानास) के कई अर्थ हैं।
कैथोलिक धर्म के लिए ईश्वर की शक्ति है।
चिनाई में साइक्लोप की दृष्टि है।
मिस्र की परंपरा में इसे होरस की आँख कहा जाता है, यहां तक कि पवित्र ज्यामिति में भी हम देखते हैं कि होरस की आँख मस्तिष्क के सभी क्षेत्रों के साथ बिल्कुल समान है, और एशियाई दुनिया में तीसरी आँख या स्पष्टता और अंतर्ज्ञान के केंद्र के रूप में है।
उद्घाटन के शब्दशास्त्र में, इसे "स्वर्ग का द्वार" कहा जाता है और फ्रांसीसी दार्शनिक डेस्कार्ट्स ने भी सुझाव दिया है कि पीनियल ग्रंथि वह है जो शरीर को आत्मा से जोड़ती या समाहित करती है।
उसने इसे "आत्मा की प्यास" कहा क्योंकि उसके अनुसार पीनियल ग्रंथि शरीर में दोनों तरफ मौजूद नहीं है।
डेस्कार्ट्स का मानना था कि (झूठा) यह विशेष रूप से मनुष्य के लिए आरक्षित था।

पीनियल ग्लैंडुला द्वारा उत्पादित मेलाटोनिन हार्मोन, जिसकी कमी अनिद्रा और अवसाद की ओर ले जाती है, कुछ खाद्य पदार्थों जैसे ओट्स, मकई, टमाटर, आलू, अखरोट, चावल और चेरी में निहित है।
सुमेरियन और बेबीलोनियाई लोगों के प्राचीन मंदिरों में पीनियल ग्रंथि का एक पंथ था और वेटिकन में भी आप अनानास या अनानास ग्रंथि के आकार में एक मूर्ति देख सकते हैं, जिसे आलू भी ले जाते हैं, और वहाँ हियरोग्लाइफी हैं दीवारों पर सीएस पिरामिड के साथ का।
पीनियल ग्रंथि डीएमटी (डाइमेटिल्ट्रीप्टामाइन) नामक पदार्थ को अलग करती है, अर्थात आध्यात्मिक अणु, जो नेत्र आंदोलन के तेजी से चरण के दौरान जारी किया जाता है, इसलिए जब हम सपने देखते हैं तो यह सपने में छवियों को देखने के लिए जिम्मेदार होता है।
यदि प्रकाश नहीं है, तो पीनियल ग्रंथि सेरोटोनिन से मेलाटोनिन का उत्पादन करती है।
यह सतर्कता और नींद चक्र को समायोजित करने में शामिल है और टाइम ज़ोन सिंड्रोम के प्रभावों को पलटवार करने का काम करता है।

डीएमटी इतना शक्तिशाली है कि यह समय और आयामों के बीच यात्राओं के माध्यम से मानव चेतना का परिवहन कर सकता है।
डीएमटी की एक बड़ी मात्रा मृत्यु पूर्व की तत्काल स्थिति में होती है, इसलिए यह चेतना के उच्च आयामों में प्रवेश करने की क्षमता के लिए विशेषता है।
यह रहस्यमय या अंतर-आयामी स्थितियों तक पहुंचता है और प्रकृति में पाए जाने वाले सबसे मजबूत हल्लुसिनोजेनिक या उद्यमी यौगिक है। सभी पौधों और जानवरों (वेरिएबल एकाग्रता में) चेतना पर गहरा प्रभाव डालते हैं)।
वंदेमातरम।

#योगसंस्कृति

https://youtu.be/F4DB5KgYb8M?si=GjF_H3mXny9XXZR9
07/05/2024

https://youtu.be/F4DB5KgYb8M?si=GjF_H3mXny9XXZR9

*योगास्थली योग सोसाइटी द्वारा योगोत्सव 4 मई को , योग प्रोटोकॉल का सामुहिक अभ्यास* *करवाया* आयुष मंत्रालय भारत सरकार .....

साधारणत: हम एक मिनट में कोई सोलह से लेकर बीस श्वास लेते हैं। धीरे— धीरे— धीरे— धीरे झेन फकीर अपनी श्वास को शांत करता जात...
07/05/2024

साधारणत: हम एक मिनट में
कोई सोलह से लेकर बीस श्वास लेते हैं।
धीरे— धीरे— धीरे— धीरे झेन
फकीर अपनी श्वास को शांत करता जाता है।
श्वास इतनी शांत और धीमी हो जाती है
कि एक मिनट में पांच.. .चार—पांच श्वास लेता।
बस, उसी जगह ध्यान शुरू हो जाता।

श्वास धीमी हुई, वहां
विचार धीमे हो जाते हैं।
वे एक साथ जुड़े हैं।

इसलिए तो जब
तुम्हारे भीतर विचारों का
बहुत आंदोलन चलता है
तो श्वास ऊबड़— खाबड़ हो जाती है।

जब तुम पागल होने लगते हो
तो श्वास भी पागल होने लगती है।
जब तुम वासना से भरते हो तो
श्वास भी आंदोलित हो जाती है।
जब तुम क्रोध से भरते हो
तो श्वास भी उद्विग्न हो जाती है,
उच्छृंखल हो जाती है।
उसका सुर टूट जाता है।,
संगीत छिन्न—भिन्न हो जाता है,
छंद नष्ट हो जाता है।
उसकी लय खो जाती है।

झेन फकीर श्वास पर बड़ा ध्यान देते हैं।
ऐसी घड़ी आती ध्यान में,
जब श्वास बिलकुल रुक गई जैसी हो जाती है।

जब तुम शांत होते हो
तो तुम्हारा शरीर भी एक
अपूर्व शांति में डूबा होता है।
तुम्हारे रोएं—रोएं में शांति
की झलक होती है।

तुम्हारे चलने में भी तुम्हारा ध्यान प्रकट होता है।
तुम्हारे बैठने में भी तुम्हारा ध्यान प्रकट होता है।
तुम्हारे बोलने में, तुम्हारे सुनने में।

ध्यान कोई ऐसी बात थोड़े ही है
कि एक घड़ी बैठ गए और कर लिया।
ध्यान तो कुछ ऐसी बात है
कि जो तुम्हारे चौबीस घंटे के
जीवन पर फैल जाता है।
जीवन तो एक अखंड धारा है।
घड़ी भर ध्यान और तेईस घड़ी ध्यान नहीं,
तो ध्यान होगा ही नहीं।
ध्‍यान जब फैल जाएगा तुम्हारे
चौबीस घंटे की जीवन धारा पर…।

ध्यानी को तुम सोते भी देखोगे तो फर्क पाओगे।
उसकी निद्रा में भी एक परम शांति है I

Osho अष्‍टावक्र: महागीता (भाग–5) प्रवचन–73
🍃🌺

#योगसंस्कृति

अजूबा ही नहीं, एक तिलिस्म है मानवी शरीर ........................अपनी अंगुलियों से नापने पर 96 अंगुल लम्बे इस मनुष्य−शरीर...
28/04/2024

अजूबा ही नहीं, एक तिलिस्म है मानवी शरीर ........................
अपनी अंगुलियों से नापने पर 96 अंगुल लम्बे इस मनुष्य−शरीर में जो कुछ है, वह एक बढ़कर एक आश्चर्यजनक एवं रहस्यमय है।
हमारी शरीर यात्रा जिस रथ पर सवार होकर चल रही है उसके प्रत्येक अंग-अवयव या कलपुर्जे कितनी विशिष्टतायें अपने अन्दर धारण किये हुए है, इस पर हमने कभी विचार ही नहीं किया। यद्यपि हम बाहर की छोटी-मोटी चीजों को देखकर चकित हो जाते हैं और उनका बढ़ा-चढ़ा मूल्याँकन करते हैं, पर अपनी ओर, अपने छोटे-छोटे कलपुर्जों की महत्ता की ओर कभी ध्यान तक नहीं देते। यदि उस ओर भी कभी दृष्टिपात किया होता तो पता चलता कि अपने छोटे से छोटे अंग अवयव कितनी जादू जैसी विशेषता और क्रियाशीलता अपने में धारण किये हुए हैं। उन्हीं के सहयोग से हम अपना सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन जी रहे हैं।

विशिष्टता हमारी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है। आत्मिक गरिमा तथा शरीर की सूक्ष्म एवं कारण सत्ता को जिसमें पंचकोश, पाँच प्राण, कुण्डलिनी महाशक्ति, षट्चक्र, उपत्यिकाएँ आदि सम्मिलित हैं, की गरिमा पर विचार करना पीछे के लिए छोड़कर मात्र स्थूलकाय संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें तो इस क्षेत्र में भी सब कुछ अद्भुत दीखता है। वनस्पति तो क्या-मनुष्येत्तर प्राणि शरीरों में भी वे विशेषताएं नहीं मिलतीं जो मनुष्य के छोटे और बड़े अवयवों में सन्निहित हैं। कलाकार ने अपनी सारी कला को इसके निर्माण में झोंक दिया है।

शरीर रचना से लेकर मनःसंस्थान और अन्तःकरण की संवेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही असाधारण दृष्टिगोचर होता है। यदि हम कल्पना करें और वैज्ञानिक दृष्टि से आँखें उघाड़ कर देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य−शरीर के निर्माण में स्रष्टा ने जो बुद्धि, कौशल खर्च किया तथा परिश्रम जुटाया, वह अन्य किया तथा परिश्रम जुटाया, वह अन्य किसी भी शरीर के लिए नहीं किया। मनुष्य सृष्टि का सबसे विलक्षण उत्पादन है। ऐसा आश्चर्य और कोई दूसरा नहीं है। यह सर्व क्षमता संपन्न जीवात्मा का अभेद्य दुर्ग, यंत्र एवं वाहन है। यह जिन कोषों से बनता है, उसमें चेतन परमाणु ही नहीं होते, वरन् दृश्य जगत में दिखाई देने वाली प्रकृति का भी उसमें योगदान है।

इससे मनुष्य−शरीर की क्षमता और मूल्य और भी बढ़ जाता है। ठोस द्रव और गैस जल, आक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कार्बन सिल्वर, सोना, लोहा, फास्फोरस आदि जो कुछ भी तत्व पृथ्वी में हैं और जो कुछ पृथ्वी में नहीं हैं, अन्य ग्रह नक्षत्रों में हैं, वह सब भी स्थूल और सूक्ष्म रूप में शरीर में है।

जिस तरह वृक्ष में कहीं तने, कहीं पत्ते, कहीं फल एक व्यापक विस्तार में होते हैं,शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में उसी प्रकार विभिन्न लोक और लोकों की शक्तियां विद्यमान देखकर ही शास्त्रकार ने कहा था-’यत्ब्रह्माण्डेतत्पिंडे’ ब्रह्माण्ड की संपूर्ण शक्तियां मनुष्य−शरीर में विद्यमान हैं।

सूर्य चन्द्रमा, बुद्ध, बृहस्पति, उत्तरायण, दक्षिणायन मार्ग, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, विद्युत, चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण आदि सब शरीर में हैं। यह समूचा विराट् जगत अपनी इसी काया के भीतर समाया हुआ है।
आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि जो विशेषताएं और सामर्थ्य प्रकृति ने मनुष्य को प्रदान की हैं, वह सृष्टि के किसी भी प्राणी-शरीर को उपलब्ध नहीं।

गर्भोपनिषद् के अनुसार मानवी काया में 180 संधियाँ, 107 मर्मस्थान, 109 स्नायु, और 700 शिरायें हैं। 500 मज्जायें, 306 हड्डियाँ, साढ़े चार करोड़ रोएं, 8 पल हृदय, 12 पल जिह्वा, एक प्रस्थ पित्त, एक आढ़क कफ, एक कुड़वशुक्र, दो प्रस्थ मेद हैं। इसके अतिरिक्त आहार ग्रहण करने व मल मूत्र निष्कासन के जो अच्छे से अच्छे यंत्र इस शरीर में लगे हैं, वह अन्य किसी भी शरीर में नहीं है।

स्थूलशरीर पर दृष्टि डालने से सबसे पहले त्वचा नजर आती है। शरीरशास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक वयस्क व्यक्ति के त्वचा का भार लगभग 9 पौण्ड होता है जो कि प्रायः मस्तिष्क से तीन गुना अधिक है। यह त्वचा 18 वर्ग फुट से भी अधिक जगह घेरे रहती है। मोटे तौर से देखने पर वह ऐसी लगती है मानों शरीर पर कोई मोमी कागज चिपका जो, परन्तु बारीकी से देखने पर पता चलता है कि उसमें भी एक पूरा सुविस्तृत कारखाना चल रहा है।

शरीर पर इसका क्षेत्रफल लगभग 250 फुट होता है। सबसे पतली वह पलकों पर होती है- .5 मिलीमीटर। पैर के तलुवों में सबसे मोटी है- 6 मिलीमीटर। साधारणतया उसकी मोटाई 0.3 से लेकर 300 मिलीमीटर तक होती है। एक वर्ग इंच त्वचा में प्रायः 72 फुट लम्बी तंत्रिकाओं का जाल बिछा रहता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट लम्बी तंत्रिकाओं का जाल बिछा होता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट से कम न बैठेगी। यह रक्तवाहनियां सर्दी में सिकुड़ती और गर्मियों में फैलती रहती है ताकि शारीरिक तापमान का संतुलन ठीक बना रहे। चमड़ी की सतह पर प्रायः 3 लाख स्वेद ग्रंथियाँ और अगणित छोटे-छोटे बारीक छिद्र होते हैं। इन रोमकूपों से लगभग एक पौण्ड पसीना प्रति दिन बाहर निकलता रहता है। त्वचा के भीतर बिखरे ज्ञान तन्तुओं को यदि एक लाइन में रख दिया जाय तो वे 45 मील लम्बे होंगे।

त्वचा से ‘सीवम’ नामक एक विशेष प्रकार का तेल निकलता रहता है। यह सुरक्षा और सौंदर्य वृद्धि के दोनों ही कार्य करता है। उसकी रंजक कोशिकायें ‘मिलेनिन’ नामक रसायन उत्पन्न करती है। यही चमड़ी को गोरे, काले भूरे आदि रंगों से रंगता रहता है। त्वचा देखने में एक प्रतीत होती है, पर उसके तीन मोटे विभाग किये जा सकते हैं- ऊपरी त्वचा, भीतरी त्वचा तथा सब क्युटेनियम टिष्यू। नीचे वाली परत में रक्त वाहिनियाँ, तंत्रिकाएँ एवं वसा के कण होते हैं। इन्हीं के द्वारा चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ जब यह वसा कण सूखने लगते हैं तो त्वचा पर झुर्रियाँ लटकने लगती हैं।

भीतरी त्वचा पर में तंत्रिकाएँ, रक्तवाहनियां रोमकूप, स्वेद ग्रंथियाँ तथा तेल ग्रंथियाँ होती हैं। इन तंत्रिकाओं को एक प्रकार से संवेदना वाहक टेलीफोन के तार कह सकते हैं। वे त्वचा स्पर्श की अनुभूतियों को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं और वहाँ के निर्देश- संदेशों को अवयवों तक पहुँचाते हैं। त्वचा कभी भी झूठ नहीं बोलती। झूठ पकड़ने की मशीन-’लाय डिटेक्टर या पोली ग्राफ मशीन’ इस सिद्धान्त पर कार्य करती है कि दुराव-छिपाव से उत्पन्न हार्मोनिक परिवर्तनों के फलस्वरूप त्वचा के वैद्युतीय स्पंदन एवं रग में जो परिवर्तन या तनाव उत्पन्न होता है, वह सारे रहस्यों को उजागर कर देता है।

साँप की केंचुली सबने देखी है। जिस प्रकार सांप अपनी केंचुली बदलता है, उसी प्रकार हम भी अपनी त्वचा हर-चौथे पाँचवें दिन बदल देते हैं। होता यह है कि हमारी शारीरिक कोशिकायें करोड़ों की संख्या में प्रति मिनट के हिसाब से मरती रहती हैं और नयी कोशिकायें पैदा होती रहती हैं और इस प्रकार केंचुली बदलने का क्रम चलता रहता है। यह क्रम बहुत हलका और धीमा होने से हमें दिखाई नहीं पड़ता। इस तरह जिन्दगी भर में हमें हजारों बार अपनी चमड़ी की केंचुली बदलनी पड़ती है। यही हाल आँतरिक अवयवों का भी है। किसी अवयव का कायाकल्प जल्दी-जल्दी होता है तो किसी का देर में धीमे-धीमे।
यह परिवर्तन अपनी पूर्वज कोशिकाओं के अनुरूप ही होता है, अतः अंतर न पड़ने से यह प्रतीत नहीं होता कि पुरानी के चले जाने और नयी स्थानापन्न होने जैसा कुछ परिवर्तन हुआ है।

त्वचा के भीतर प्रवेश करें तो मांसपेशियों का सुदृढ़ ढांचा खड़ा मिलता है। उन्हीं के आधार पर शरीर का हिलना डुलना, मुड़ना, चलना, फिरना संभव हो रहा है।शरीर की सुन्दरता, सुदृढ़ता और सुडौलता बहुत करके मांसपेशियों की संतुलित स्थिति पर ही निर्भर रहती है। मांसपेशियों की बनावट एवं वजन के हिसाब से ही मोटे और पतले आदमियों की पहचान होती है। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में 600 से अधिक मांसपेशियां होती हैं और उनमें से प्रत्येक के अपने विशिष्ट कार्य होते हैं। इनमें से कितनी ही अविराम गति से जीवन पर्यंत तक अपने कार्य में जुटी रहती हैं, यहाँ तक कि सोते समय भी, जैसे कि हृदय का धड़कना, फेफड़ों का सिकुड़ना-फैलना, रक्त संचार, आहार का पचना आदि की क्रियायें अनवरत रूप से चलती रहती हैं।
30 माँस पेशियां ऐसी होती हैं जो खोपड़ी की हड्डियों से जुड़ी होती है और चेहरे भाव परिवर्तन में सहायता करती हैं। शैशव अवस्था में प्रथम तीन वर्ष तक मांसपेशियों का विकास हड्डियों से भी अधिक दो गुनी तीव्र गति से होता है इसके बाद विकास की गति कुछ धीमी पड़ जाती है जब शरीर में अचानक परिवर्तन उभरते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। संरचना में प्रत्येक मांसपेशी अनेकों तन्तुओं से मिलकर बनी होती है। वे बाल से भी पतले होते हैं, पर मजबूत इतने कि अपने वजन की तुलना में एक लाख अधिक भारी वजन उठा सके।

इन अवयवों में से जिस पर भी तनिक गहराई से विचार करें तो उसी में विशेषताओं का भण्डार भरा दीखता है। यहाँ तक कि बाल जैसी निर्जीव और बार-बार खर-पतवार की तरह उखाड़-काट कर फेंक दी जाने वाली वस्तु भी अपने आप में अद्भुत हैं।

प्रत्येक मनुष्य का शरीर असंख्य बालों से (लगभग साढ़े चार करोड़) ढका होता है, यद्यपि वे सिर के बालों की अपेक्षा बहुत छोटे होते हैं। सिर में औसतन 120000 बाल होते हैं। प्रत्येक बाल त्वचा से एक नन्हें गढ्ढे से निकला है जिसे रोमकूप कहते हैं। यहीं से बालों को पोषण होता है। बालों की वृद्धि प्रतिमास तीन चौथाई इंच होती है, इसके बाद वह घटती जाती है। जब बाल दो वर्ष के हो जाते हैं तो उनकी गति प्रायः रुक जाती है। किसी के बाल तेजी से और किसी के धीमी गति से बढ़ते हैं। प्रत्येक सामान्य बाल की जीवन-अवधि लगभग 3 वर्ष होती है, जब कि आँख की बरोनियों की प्रायः 150 दिन ही होती है। आयु पूरी करके बाल अपनी जड़ से टूट जाते हैं और उसके स्थान पर नया बाल उगता है।

शरीर के आन्तरिक अवयवों की रचना तो और भी विलक्षण होती है। उसकी सबसे बड़ी एक विशेषता तो यही है कि वे दिन-रात अनवरत रूप से क्रियाशील रहते हैं-गति करते रहते हैं। उनकी क्रियायें एक क्षण के लिए भी रुक जायँ तो जीवन संकट तक उपस्थित हो जाता है। उदाहरण के लिए रक्त परिवहन संस्थान को ही लें। हृदय की धड़कन के फलस्वरूप रक्त संचार होता है और जीवन के समस्त क्रिया-कलाप चलते हैं। यह रक्त प्रवाह नदी-नाले की तरह नहीं चलता वरन् पंपिंग स्टेशन जैसी विशेषता उसमें रहती है। हृदय के आकुँचन-प्रकुँचन प्रक्रिया के स्वरूप ही ऊपर-नीचे-समस्त अंग अवयवों में रक्तप्रवाह होता रहता है। सारे शरीर में रक्त की एक परिक्रमा प्रायः 90 सेकेंड में पूरी हो जाती है।
हृदय और फेफड़े की दूरी पार करने उसे मात्र 6 सेकेंड में पूरी हो जाती है। हृदय और फेफड़े की दूरी पार करने में उसे मात्र 6 सेकेंड लगते हैं, जबकि मस्तिष्क तक रक्त पहुँचने में 8 सेकेंड लग जाते हैं। रक्त प्रवाह रुक जाने पर भी हृदय 5 मिनट और और अधिक जी लेता है, पर मस्तिष्क 3 मिनट में ही बुझ जाता है। हार्ट अटैक हृदयाघात की मृत्युओं में प्रधान कारण धमनियों से रक्त की सप्लाई रुक जाना होता है। रक्त प्रवाह संस्थान का निर्माण करने वाली रक्तवाही नलिकाओं की कुल लम्बाई 60 हजार मील है जो कि पृथ्वी के धरातल की दूरी है। औसत दर्जे के मानवी काया में प्रायः 5 से 6 लीटर तक रक्त रहता है। इसमें से 5 लीटर तो निरंतर गतिशील रहता है और एक लीटर आपत्ति-कालीन आवश्यकता के लिए सुरक्षित रहता है। 24 घंटे में हृदय को 13 हजार लीटर रक्त का आयात-निर्यात करना पड़ता है। 10 वर्ष में इतना खून फेंका-समेटा जाता है जिसे एक बारगी यदि इकट्ठा कर लिया है जिसे एक बारगी यदि इकट्ठा कर लिया जाय तो उसे 400 फुट घेरे की 80 मंजिली टंकी में ही भरा जा सकेगा।

इतना श्रम यदि एक बार ही करना पड़े तो उसमें इतनी शक्ति लगानी पड़ेगी जितनी 10 टन बोझ जमीन से 50 हजार फुट तक ऊपर उठा ले जाने में लगानी पड़ेगी।शरीर में जो तापमान रहता है, उसका कारण रक्त प्रवाह से उत्पन्न होने वाली ऊष्मा ही है। रक्त संचार की दुनिया इतनी सुव्यवस्थित और महत्वपूर्ण है कि यदि उसे ठीक तरह से समझा जा सके और उसके उपयुक्त रीति-नीति अपनायी जा सके तो सुदृढ़ और सुविकसित दीर्घ जीवन प्राप्त किया जा सकता है।
त्वचा, मांसपेशियां रक्त परिसंचरण प्रणाली ही नहीं शरीर संस्थान का एक-एक घटक अद्भुत और विलक्षण है। 5 फीट 6 इंच की इस मानवी काया में परमात्मा ने इतने अधिक आश्चर्य भर दिये हैं कि उसे देव मंदिर कहने और मानने में कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

#योगसंस्कृति

 #योगसंस्कृति  #सूर्यनमस्कार
19/03/2024

#योगसंस्कृति
#सूर्यनमस्कार

09/03/2024

#ध्यान-योगी साधना काल में कतिपय योग क्रियाओं के अनुशीलन से, अभ्यास से, अपने मुण्ड में ही आत्मबोध करता है, आत्मप्रकाश का अनुभव करता है। मौन व्रत धारण करने से बाह्य जगत् का लोप होता है और आत्मचेतना का ऊर्ध्वारोहण संभव होता है।

#वाणी के चार आयाम हैं, वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा। वैखरी में बाह्य जगत् का विलास है, मध्यमा में मेधा शक्ति का विकास है, पश्यन्ति में आत्मदर्शन और परा में अनंत ब्रह्माण्ड नायिका अन्नपूर्णा का प्राकट्य होता है।

#योग की चार विशिष्ट मुद्राओं से काशी अविमुक्त क्षेत्र का सुमेरु शीर्ष सहस्रार में विकास होता है और वहां स्थित परम् शक्ति अन्नपूर्णा का उपयोग भी संभव होता है। यह हैं, खेचरी, गोचरी, दिक्चरी और भूचरी।

✓ खेचरी मुद्रा
खेचरी का पदच्छेद है,

ख् + अ + इ + च् + अ + र् + ई

- ख् है आकाश तत्त्व, विशुद्धि चक्र,
- अ है आकाश तत्त्व को स्थिर करने के संदर्भ में,
- इ है कामना का द्योतक,
- च् है चित्त,
- अ है चित्त को स्थिर करने के संदर्भ में,
- र् है अग्नि तत्त्व, मणिपुर चक्र,
- ई है कामना दीर्घ काल तक के लिए।

अर्थ हुआ,
खेचरी मुद्रा से अग्नि तत्त्व को मणिपुर चक्र से ऊर्ध्व कर, विशुद्धि चक्र में प्रकट चिदाकाश (चित + आकाश) में स्थिर कर, दीर्घ काल तक किसी एक धारणा (कामना) से ध्यान में लीन होना।

#मूलबंध + उड्डियान बंध + अश्विनी शक्तिचालिनी मुद्रा + प्राणायाम + मंत्र-योग, से प्राण सूक्ष्म होकर ऊर्ध्वगमन करते हैं, जिससे सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत होती है मणिपुर चक्र से। जैसे जैसे अभ्यास बढ़ता है, मुण्ड में प्राण प्रवेश करने लगते हैं। जीभ स्वत: पीछे मुड़कर तालु को स्पर्श कर नासिका और कपाल की ओर जाने वाले गह्वर में प्रवेश करती है।

यही खेचरी विद्या है जिसके सतत् अभ्यास से प्राणजय सिद्धि उपलब्ध होती है, अर्थात्, श्वास पर विजय। यह सिद्धि आधार है अन्यान्य आध्यात्मिक सिद्धियों का। खेचरी मुद्रा में स्थित ध्यान-योगी कालजयी हो जाता है।

✓ गोचरी मुद्रा
पदच्छेद है,
गो + चरी

- गो (गौ) धर्म प्रतिरूप,
- चरी [ च् + अ + र् + ई ],

अर्थ हुआ,
#खेचरी से प्रकट हुए चिदाकाश में धर्म की धारणा में दीर्घ काल तक स्थित होना गोचरी विद्या का ध्येय है। स्थान, काल और पात्र के अनुसार धर्म का निर्णय करना ध्यान में और तदनुसार आचरण करना अभीष्ट है ध्यान-योगी के लिए। अथवा, स्वयं के कर्त्तव्य का पालन करना, कर्मफल में अनासक्ति, अनाश्रय के साथ।

✓ दिक्चरी
पदच्छेद है,
दिक् + चरी

- दिक् दिशाएं,
- चरी [ च् + अ + र् +ई ]

अर्थ हुआ,
कालजयी और धर्म पर आरूढ़ योगी भूत, वर्तमान और भविष्य का दर्शन कर सकता है, किसी भी स्थान और पात्र का, चिदाकाश में। इसके लिए वह दिशा निर्धारित करता है, ऊर्ध्वदिशा में भविष्यत्काल, अध:दिशा में भूतकाल, और वर्तमान के लिए समदिशा पर संयम कर पात्र और स्थान विशेष की घटना का दर्शन संभव है, ईक्षण से, बिन्दु में।

यह दिव्य दृष्टि है। इसमें सभी ज्ञानेंद्रियों का उपयोग संभव होता है, दिव्य दृष्टि में ही। अनेक सिद्धियां यहां उपलब्ध होती हैं योगी को, अंतर्धान होना, कहीं भी प्रकट होना, किसी भी संख्या और रूप में, आदि।

✓ भूचरी
पदच्छेद है,
भू + चरी

- भू भूमि, मूलाधार चक्र, पृथ्वी लोक,
- चरी [ च् + अ + र् + ई ]

अर्थ हुआ,
चिदाकाश में ध्यान-योगी जैसी भी कल्पना करता है, कामना करता है, संकल्प करता है, वैसा ही भूधरा पर घटित होता है। प्राण, प्रण से प्रकट होते हैं। प्रण ही कामना है। प्राण के साथ प्रकृति, भावना और पंचमहाभूत, दोनों रूपों में, अर्थात्, सगुण और साकार, दोनों ही रूपों में, पृथ्वी पर प्रकट होते हैं।

#भूचरी विद्या से ध्यान-योगी किसी भी वस्तु या जीव को किसी भी संख्या में, कहीं भी, किसी भी समय में, प्रकट कर सकता है, और इसका विलोम, अर्थात्, लोप भी कर सकता है, स्थिर भी कर सकता है।

✓✓ विशिष्ट विद्या

चिदाकाश में आत्मचेतना को निष्काम भाव से ऊर्ध्व करने से, अन्नपूर्णा या भगवान् के पूर्ण अवतार या किसी ब्रह्मर्षि के अनुग्रह से, अविमुक्त काशी क्षेत्र का उद्भव ‌होता है आज्ञा चक्र - सहस्रार में। केवल और केवल निष्काम योगी ही जाग्रत कर सकते हैं इस अनुपम क्षेत्र काशी को।

दश दिशाओं में दश भैरव द्वारपाल हैं अविमुक्त क्षेत्र काशी में, जिनमें काल भैरव प्रमुख हैं। काशी क्षेत्र अनंत काल का द्योतक है। अनंत ब्रह्माण्ड नायिका अन्नपूर्णा का परम् क्षेत्र है यह। किसी भी काल खण्ड के किसी भी ब्रह्माण्ड में यह सक्षम योगी कुछ भी कर सकने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, यह ऐसी विशिष्ट विद्या है, जिसका आधार खेचरी मुद्रा है।

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