
03/07/2025
हज़रत क़ासिम (अ.स.) की मेहंदी – अधूरी शादी की याद, अमर शहादत की गवाही"
लखनऊ आज फिर ग़म में डूबा है। 7वीं मोहर्रम को निकलने वाला ऐतिहासिक शाही ज़री जुलूस, जिसे अकीदतमंद हज़रत क़ासिम (अ.स.) की मेहंदी कहते हैं, एक ऐसी परंपरा है जो नवाबी दौर से आज तक जारी है।
यह जुलूस बड़ा इमामबाड़ा से शुरू होकर छोटा इमामबाड़ा तक जाता है और करबला के 13 वर्षीय शहीद हज़रत क़ासिम इब्न हसन (अ.स.) की शहादत और उनकी अधूरी शादी की याद में निकाला जाता है। इमाम हसन (अ.स.) के बेटे और इमाम हुसैन (अ.स.) के भतीजे हज़रत क़ासिम की शादी इमाम हुसैन की बेटी से तय थी, लेकिन कर्बला की जंग में उनकी शहादत इस रिश्ते को अधूरा छोड़ गई।
इतिहास की झलक:
इस जुलूस की शुरुआत नवाब मोहम्मद अली शाह (1837–1842) ने की थी। बाद में नवाब वाजिद अली शाह ने इसमें मेहंदी के और रस्मों को जोड़ा, जिससे यह और भी भावपूर्ण बन गया।
1977 से 1997 तक प्रतिबंध के कारण यह जुलूस इमामबाड़े के परिसर तक सीमित रहा, लेकिन 1998 से यह फिर से सार्वजनिक रूप से निकाला जाने लगा।
जुलूस की विशेषताएं:
🔸 मेहंदी की ज़रीह: हज़रत क़ासिम की दो प्रतीकात्मक कब्रें, जिन्हें बहराइच के सुन्नी कारीगर सजाते हैं।
🔸 सजाए गए जानवर: हाथी, ऊँट और ज़ुल्जनाह (इमाम हुसैन के घोड़े की नकल) की भागीदारी।
🔸 अंजुमनें और अलम: काले झंडों के साथ नौहाख्वानी और सोज़ख्वानी करती अंजुमनें।
🔸 सीना-ज़नी: अज़ादार मातम करते हुए “या हुसैन” और “या क़ासिम” के नारे लगाते हैं।
🔸 सबीलें: रास्ते भर लगे पानी और शरबत के स्टॉल, इमाम हुसैन की प्यास और इंसानियत का संदेश।
गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक:
यह जुलूस न सिर्फ एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि लखनऊ की साझी सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। हिंदू, सुन्नी और अन्य समुदाय भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
हज़रत क़ासिम की अधूरी शादी की कहानी, आज भी अज़ादारों के दिलों को झकझोर देती है और करबला का यह पैग़ाम देता है — ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खामोश मत रहो।
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