Acharya Krishna Mishra

Acharya Krishna Mishra श्री महर्षि सांदीपनि राष्ट्रीय‌ वेद वेदांग विद्यालय (उज्जैन) मप्र ।
गुरुकुल शुक्ल यजुर्वेद अध्यापक

भवात्-भवम” का सिद्धांत वैदिक ज्योतिष के  विश्लेषण भवात्-भवम सिद्धांत“भवात्-भवम” का सिद्धांत वैदिक ज्योतिष के गहरे विश्ले...
09/11/2025

भवात्-भवम” का सिद्धांत वैदिक ज्योतिष के विश्लेषण
भवात्-भवम सिद्धांत

“भवात्-भवम” का सिद्धांत वैदिक ज्योतिष के गहरे विश्लेषण की एक महत्वपूर्ण विधि है, जिसमें किसी भाव (घर) के फल को समझने के लिए केवल उस भाव को नहीं देखा जाता, बल्कि उस भाव से उतनी ही दूरी पर स्थित दूसरे भाव को भी देखा जाता है, जितनी दूरी से वह लग्न (पहले घर) से स्थित है। यह दृष्टिकोण हमें विभिन्न जीवन क्षेत्रों के विकास और उनके आपसी संबंधों को बेहतर ढंग से समझने में मदद करता है।

दूसरे भाव से दूसरा भाव (तीसरा भाव)

दूसरा भाव वाणी (बोलने) का प्रतिनिधित्व करता है। यदि हमें किसी व्यक्ति की वाणी के विकास को समझना है, तो हमें न केवल दूसरे भाव को देखना होगा, बल्कि दूसरे से दूसरा भाव, यानी तीसरा भाव भी देखना होगा। क्योंकि तीसरा भाव संवाद और संचार का प्रतीक है। इस तरह, जबकि दूसरा भाव मुख्य रूप से वाणी के लिए जिम्मेदार है, तीसरा भाव यह दर्शाता है कि वह वाणी संवाद के माध्यम से कैसे व्यक्त की जाएगी।

तीसरे भाव से तीसरा भाव (पांचवा भाव)

तीसरा भाव हाथों और हाथों के द्वारा किए जाने वाले कार्यों (जैसे लिखाई, कढ़ाई, चित्रकला, वाद्ययंत्र बजाना) का प्रतीक है। यह हमारे हाथों के माध्यम से हमारी प्रतिभा को दर्शाता है। इस प्रतिभा की सही समझ के लिए केवल तीसरे भाव को देखना पर्याप्त नहीं है, बल्कि तीसरे से तीसरा भाव, यानी पांचवा भाव, भी देखा जाना चाहिए। पांचवा भाव रचनात्मक सोच और बुद्धि का प्रतिनिधित्व करता है, जो हमारे कौशलों के उपयोग को बेहतर बनाता है। अगर तीसरे और पांचवे भाव के स्वामी किसी प्रकार से जुड़े होते हैं, तो यह व्यक्ति के रचनात्मक और बौद्धिक विकास को दर्शाता है।

चौथे भाव से चौथा भाव (सातवां भाव)

चौथा भाव संपत्ति, शिक्षा और वाहन का प्रतीक है। इसका विश्लेषण करते समय हमें चौथे भाव के अलावा चौथे से चौथा भाव, यानी सातवां भाव, भी देखना चाहिए। सातवां भाव साझेदारी और विवाह का प्रतीक है, जो दर्शाता है कि व्यक्ति की संपत्ति, वाहन आदि कई बार जीवनसाथी या साझेदार पर निर्भर हो सकते हैं। इस प्रकार, चौथे भाव के मामलों को समझने के लिए सातवें भाव पर भी ध्यान देना आवश्यक है।

पांचवे भाव से पांचवा भाव (नौवां भाव)

पांचवा भाव शिक्षा और बुद्धि का प्रतिनिधित्व करता है। जब हमें पांचवे भाव के फल का विश्लेषण करना हो, तो हमें नौवें भाव को भी देखना चाहिए, क्योंकि यह पांचवे से पांचवा भाव है। नौवां भाव आध्यात्मिकता और उच्च सिद्धांतों का प्रतीक है, जो बुद्धि के उच्चतम स्तर का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए, पांचवे भाव के विकास के लिए नौवें भाव का भी अध्ययन जरूरी है।

छठे भाव से छठा भाव (ग्यारहवां भाव)

छठा भाव रोग, शत्रु, और ऋण का प्रतिनिधित्व करता है। छठे भाव की समस्याओं को समझने के लिए हमें छठे से छठा भाव, यानी ग्यारहवें भाव को देखना चाहिए। ग्यारहवां भाव इच्छाओं की पूर्ति, मित्रों और उपलब्धियों का प्रतीक है। यह दिखाता है कि यदि हमारी इच्छाएं बहुत प्रबल हों, तो वे हमारे स्वास्थ्य और संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती हैं। इसलिए, छठे भाव के अच्छे या बुरे परिणाम ग्यारहवें भाव से भी जुड़े होते हैं।

सातवें भाव से सातवां भाव (पहला भाव)

सातवां भाव विवाह और साझेदारी का प्रतीक है। सातवें भाव के फल को समझने के लिए सातवें से सातवां भाव, यानी पहला भाव भी देखना चाहिए। यह दिखाता है कि हमारे जीवनसाथी के गुण हमारे खुद के व्यक्तित्व का प्रतिबिंब होते हैं। इस प्रकार, विवाह का सही मूल्यांकन करने के लिए हमें अपने स्वयं के व्यक्तित्व पर भी ध्यान देना चाहिए।

आठवें भाव से आठवां भाव (तीसरा भाव)

आठवां भाव अचानक होने वाले परिवर्तन, नुकसान और गंभीर बीमारियों का प्रतीक है। इसका विश्लेषण करने के लिए हमें आठवें से आठवां भाव, यानी तीसरा भाव, देखना होगा। तीसरा भाव हमारे कर्म और इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता है। यह दिखाता है कि हमारी इच्छाओं और प्रयासों के कारण ही आठवें भाव के कष्टकारी परिणाम हो सकते हैं। इसलिए, किसी संकट के कारणों को समझने के लिए हमें तीसरे भाव पर भी ध्यान देना चाहिए।

नौवें भाव से नौवां भाव (पांचवा भाव)

नौवां भाव शिक्षा, नेतृत्व, और पिता का प्रतीक है। इसका विश्लेषण करते समय हमें नौवें से नौवां भाव, यानी पांचवा भाव, भी देखना चाहिए। यह गुरु और शिष्य के बीच के संबंध को दर्शाता है। अगर नौवां भाव शिक्षक का प्रतीक है, तो पांचवा भाव शिष्य का। दोनों का आपस में घनिष्ठ संबंध है और एक का मूल्यांकन दूसरे से किया जा सकता है।

दसवें भाव से दसवां भाव (सातवां भाव)

दसवां भाव करियर, प्रतिष्ठा और समाज में स्थान का प्रतीक है। इसे समझने के लिए हमें दसवें से दसवां भाव, यानी सातवां भाव, भी देखना चाहिए। सातवां भाव साझेदारी और समाज में संवाद का प्रतीक है। इस प्रकार, करियर में सफलता हासिल करने के लिए पारिवारिक जीवन और सामाजिक संबंध भी महत्वपूर्ण होते हैं।

ग्यारहवें भाव से ग्यारहवां भाव (नौवां भाव)

ग्यारहवां भाव लाभ, इच्छाओं की पूर्ति और उपलब्धियों का प्रतीक है। इसका विश्लेषण करते समय हमें ग्यारहवें से ग्यारहवां भाव, यानी नौवां भाव, भी देखना चाहिए। नौवां भाव भाग्य और उच्च नैतिक सिद्धांतों का प्रतीक है। यदि नौवां भाव मजबूत हो, तो व्यक्ति की इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं पूरी होती हैं, लेकिन यदि यह कमजोर हो, तो व्यक्ति अपनी उपलब्धियों को खो सकता है।

बारहवें भाव से बारहवां भाव (ग्यारहवां भाव)

बारहवां भाव मुक्ति और सांसारिक सुखों का त्याग दर्शाता है। इसका विश्लेषण करने के लिए हमें बारहवें से बारहवां भाव, यानी ग्यारहवां भाव, भी देखना चाहिए। यह दिखाता है कि यदि हम अपने सांसारिक इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का त्याग करते हैं, तो ही हम वास्तविक मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।

“भवात्-भवम” सिद्धांत यह सिखाता है कि किसी भी भाव का विश्लेषण करते समय हमें उस भाव से संबंधित दूसरे भाव को भी देखना चाहिए, ताकि जीवन के विभिन्न पहलुओं का विस्तृत और गहन विश्लेषण किया जा सके। इस सिद्धांत का उपयोग कर हम कुंडली का गहरा अध्ययन कर सकते हैं और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के विकास और फलित को समझ सकते हैं।

Acharya Krishna Mishra

07/10/2025

October 7, 2023 attack to the legacy of the Holocaust - the story of

16/09/2025

पितरों को भोजन कैसे मिलता है ? इसे अवश्य पढ़िये!!
प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है?

कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिंड से या ब्राह्मण को भोजन करने से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है?
इस शंका का स्कंद पुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है

एक बार राजा करंधम ने महायोगी महाकाल से पूछा, 'मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिंडदान किया जाता है तो वह जल, पिंड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?'

भगवान महाकाल ने बताया कि विश्व नियंता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरूप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि।
पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गईं स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। 5 तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति- इन 9 तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर 10वें तत्व के रूप में साक्षात भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं इसलिए देवता और पितर गंध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से तृप्त रहते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वे वर देते हैं।

पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व- जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सारतत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।

किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार?

नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं।

यदि पितर देव योनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें 'अमृत' होकर प्राप्त होता है।

यदि गंधर्व बन गए हैं, तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है।

यदि पशु योनि में हैं, तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है।

नाग योनि में वायु रूप से,

यक्ष योनि में पान रूप से,

राक्षस योनि में आमिष रूप में,

दानव योनि में मांस रूप में,

प्रेत योनि में रुधिर रूप में

और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता है।

मित्रो , जिस प्रकार बछड़ा झुंड में अपनी मां को ढूंढ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मंत्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं।
जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।

श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मण पितरों के प्रतिनिधि रूप होते हैं। एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गईं। ब्राह्मण भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं-

'मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे मैं आपको बताती हूं। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारण कर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छाया रूप में सटकर उपस्थित थे। ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघन कर वहां कैसे खड़ी रहती? इसलिए मैं ओट में हो गई।'

तुलसी से पिंडार्चन किए जाने पर पितरगण प्रलयपर्यंत तृप्त रहते हैं। तुलसी की गंध से प्रसन्न होकर गरुड़ पर आरूढ़ होकर विष्णुलोक चले जाते हैं।

पितर प्रसन्न तो सभी देवता प्रसन्न- श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है।

आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। (यमस्मृति, श्राद्धप्रकाश)

यमराजजी का कहना है कि श्राद्ध करने से मिलते हैं ये 6 पवित्र लाभ-

श्राद्ध कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।

पितरगण मनुष्य को पुत्र प्रदान कर वंश का विस्तार करते हैं।

परिवार में धन-धान्य का अंबार लगा देते हैं।

श्राद्ध कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।

पितरगण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।

श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाले के परिवार में कोई क्लेश नहीं रहता, वरन वह समस्त जगत को तृप्त कर देता है।

❗जय महादेव❗

विभिन्न ग्रहों की युति-प्रतियुति के क्या फल हो सकते हैं जब दो यह एक ही राशि में हो तो इसे ग्रहों की मूति कहा जाता है।जब ...
25/08/2025

विभिन्न ग्रहों की युति-प्रतियुति के क्या फल हो सकते हैं जब दो यह एक ही राशि में हो तो इसे ग्रहों की मूति कहा जाता है।

जब दो यह एक-दूसरे से सातवें स्थान पर हो अर्थात् 180 डिग्री पर हों, तो यह प्रतियुति कहलाती है। अशुभ यह या अशुभ स्थानों के स्वामियों की युति-प्रतियुति अशुभ फलदायक होती है,

जबकि शुभ ग्रहों की युति शुभ फल देती है।

आइए देखें, विभिन्न ग्रहों की युति-प्रतिमूति के क्या फल हो सकते हैं-

सूर्य-गुरु: उत्कृष्ट योग, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, यश दिलाता है। उच्च शिक्षा हेतु दूरस्थ प्रवास योग तथा बौ‌द्धिक

क्षेत्र में असाधारण यश देता है।

सूर्य-शुक्र: कला क्षेत्र में विशेष यश दिलाने वाला योग होता है। विवाह व प्रेम संबंधों में भी नाटकीय स्थितियाँ

निर्मित करता है।

सूर्य-बुध: यह योग व्यक्त को व्यवहार कुशल बनाता है। व्यापार-व्यवसाय में यश दिलाता है। कर्ज आसानी से मिल जाते हैं।

सूर्य-मंगल: अत्यंत महत्वाकांक्षी बनाने वाला यह योग व्मिक्त को उत्कट इच्छाशिक्त व साहस देता है। ये व्यिक्त

किसी भी क्षेत्र में अपने आपको श्रेष्ठ सिदध करने की योग्यता रखते हैं।

5. सूर्य-शनि : अत्यंत अशुभ योग, जीवन के हर क्षेत्र में देर से सफलता मिलती है। पिता-पुत्र में वैमनस्य, भाग्य का

साथ न देना इस युति के परिणाम हैं।

सूर्य-चंद्र : चंद्र यदि शुभ योग में हो तो यह युति मान-सम्मान व प्रतिष्ठा की दृष्टि से श्रेष्ठ होती है, मगर अशुभ

योग होने पर मानसिक रोगी बना देती है।

चंद्र-मंगल: यह योग टयिक्त को जि‌द्दी व अति महत्वाकांक्षी बनाता है। यश तो मिलता है, मगर स्वास्थ्य हेतु यह योग हानिकारक है। रक्त संबंधी रोग होते हैं।

दो यहाँ युति का फल-

चन्द्र की अन्य गृहाँ से युति/सम्बन्ध का प्रभाव

चंद्र+मंगल- शत्रुओं पर एवं ईर्ष्या करने वालों पर, सफलता प्राप्त करने के लिए एवं उच्च वर्ग (सरकारी अधिकारी) विशेषकर सैनिक व शासकीय अधिकारी से मुलाकात करने के लिए उत्तम रहता है।

चंद्र+बुध धनवान वयिक्त, उ‌द्योगपति एवं लेखक, सम्पादक व पत्रकार से मिलने या सम्बन्ध बनाने के लिए। चंद्र शुक्र-प्रेम-प्रसंगों में सफलता प्राप्त करने एवं प्रेमिका को प्राप्त करने तथा शादी ब्याह के समस्त कार्यों के

लिए, विपरीत लिंगी से कार्य कराने के लिए।

चंद्र गुरु अध्ययन कार्य, किसी नई विद्‌या को सीखने एवं धन और व्यापार उन्नति के लिए।

चंद्र शनि- शत्रुओं का नाश करने एवं उन्हें हानि पहुंचाने या उन्हें कष्ट पहुंचाने के लिए।

चंद्र सूर्य- राजपुरुष और उच्च अधिकारी वर्ग के लोगों को हानि या उसे उच्चाटन करने के लिए।

मंगल की अन्य गृहों से मृति/सम्बन्ध का प्रभाव-

मंगल+बुध-शत्रुता, भौतिक सामग्री को हानि पहुंचाने, तबाह-बर्बाद, हर प्रकार सम्पति, संस्था व घर को

तबाह बर्बाद करने के लिए।

मंगल शुक्र-हर प्रकार के कलाकारों (फिल्मी सितारों) में डांस, ड्रामा एवं स्त्री जाति पर प्रभुत्व और सफलता प्राप्त करने के लिए।

मंगल गुरु- युद्ध और झगड़े में या कोर्ट केस में, सफलता प्राप्त करने के लिए, शत्रु-पथ पर भी जनमत को

अनुकूल बनाने के लिए।

मंगल शनि शत्रु नाश एवं शत्रु मृत्यु के लिए एवं किसी स्थान को वीरान करने (उजाड़ने) के लिए।

बुध की अन्य गृहों से युति सम्बन्ध का प्रभाव-

बुध शुक्र- प्रेम-सम्बन्धी सफलता, वि‌द्या प्राप्ति एवं विशेष रूप से संगीत में सफलता के लिए।

बुध गुरु- पुरुष का पुरुष के साथ प्रेम और मित्रता सम्बन्धों में पूर्ण रूप से सहयोग के लिए एवं हर प्रकार की

ज्ञानवृदधि के लिए नया है। यहाँ की युति चंद्र (विचार)-

शनि (दुःख, विषाद, कमी, निराशा): मन में दुःख, नकारात्मक सोच.

मंगल (साहस, धैर्य, तेज, क्षणिक क्रोध) विचारों में ओज, क्रांतिकारी विचार,

बुध (वाणी, धार्य, हास्य) हास्य-व्यंग्य पूर्ण विचार, नए विचार,

गुरु (जान, गंभीरता, न्याय, सत्य) न्याय, सत्य और जान की कसौटी पर कसे हुए गंभीर विचार.

शुक्र (स्त्री, माया, संसाधन, मिठास, सौंदर्य) माया में जकडे विचार, सुंदरता से जुड़े विचार

सूर्य (आत्म-तेज, आदर) आदर के विचार, स्वाभिमान का विचार.

राहू (मतिभ्रम. लालच) विचारों का द्वंद्व, सही-गलत के बीच झूलते विधार.

केतु (कटाक्ष, झूठ, अफवाह) झूठ, अफवाह और सही बातों को काटने का विचार.

विवाह भाव में चन्द्र एवं अन्य ग्रहों की युति-

चन्द्र-मंगल सप्तम भाव में चन्द्र-मंगल युति

अगर कुण्डली में विवाह भाव में चन्द्र-मंगल दोनों की युति हो रही हो तो व्यक्त के जीवनसाथी के स्वभाव में

मृदुलता की कमी की संभावना बनती है.

चन्द्र-ब्ध-सप्तम भाव में चन्द्र-बुध युति

कुण्डली में चन्द्र व बुध की युति होने पर टयिक्त का जीवनसाथी यशस्वी, वि‌द्वान व सत्ता पक्ष से सहयोग प्राप्त करने वाला होता है. इस योग के व्मिक्त को अपने जीवनसाथी के सहयोग से धन व मान मिलने की संभावना बनती है.

चन्द्र व गुरु-सप्तम भाव में चन्द्र व गुरु की मुति

कुण्डली में विवाह भाव में जब चन्द्र व गुरु एक साथ स्थित हो तो व्यिक्त का जीवनसाथी कला विषयों में कुशल होता है.

उसके वि‌द्वान व धनी होने कि भी संभावना बनती है. इस योग के व्यक्त के जीवनसाथी को सरकारी क्षेत्र से लाभ

मिलता है.

चन्द्र व शुक्र- सप्तम भाव में चन्द्र व शुक्र की युति

अगर किसी व्यक्त की कुण्डली में चन्द्र व शुक्र की युति होने पर टयिक्त का जीवनसाथी बु‌द्धिमान हो सकता है. उसके पास धन, वैभव होने कि भी संभावना बनती है. व्मिक्त के जीवनसाथी के सुविधा संपन्न होने की भी संभावना बनती है.

चन्द्र-शनि- सप्तम भाव में चन्द्र-शनि की मूति

कुण्डली के विवाह भाव में चन्द्र व शनि दोनों एक साथ स्थित हो तो व्यिक्त का जीवनसाथी प्रिितष्ठत परिवार से होता है.

सप्तम भाव में चन्द्र की अन्य ग्रहों से युति-

बुध, गुरु, शुक्र जब चंद्रमा की युति सप्तम भाव में बुध, गुरु, शुक्र से हो रही हो तो व्यक्त के वैवाहिक जीवन के शुभ फलों में वृ‌द्धि होती है.

शनि, मंगल- अगर चन्द्र की युति विवाह भाव में शनि, मंगल के साथ हो रही हो तो दाम्पत्य जीवन में परेशानियां आती है.

स्वयं चन्द्र भी जब कुण्डली में कृष्ण पक्ष का या निर्बल हो तब भी चन्द्र से मिलने वाले फल बदल जाते हैं.

चन्द्र सूर्य की मृति का फल-

इन दोनों की युति होने पर व्यिक्त के अंदर अहम की भावना आ जाती है.

कुटनीति से व्यक्त अपना काम निकालने की कोशिश करता है. व्यिक्त क्रोधी हो सकता है एवं व्यवहार में

कोमलता की कमी रहती है. मन में अिस्थर एवं बेचैन रहता है. मन की शांति एवं व्यवहार कुशलता बढ़ाने के लिए चन्द्र के उपाय स्वरूप सोमवार के दिन भगवान शिव का जलाभिषेक करना चाहिए. मोती धारण करने से भी लाभ

मिलता है.

चन्द्र मंगल की युति का फल-

मंगल भी सूर्य के समान अिग्न प्रधान ग्रह है. चन्द्र एवं मंगल की युति होने पर व्यक्त के स्वभाव में उग्रता आ जाती है. मंगल को यहाँ में सेनापति कहा जाता है जो युद्ध एवं शिक्त प्रदर्शन का प्रतीक होता है.

ll Acharya Krishna Mishra ll

03/08/2025

1. विवाह का कारक-स्त्रियों के लिए गुरु और पुरुषों के लिए शुक्र होता है। 2. तुला राशि वैवाहिक संबंध स्थापित करने और वृश्चिक राशि वैवाहिक मेल-मिलाप हेतु कारक माना जाता है। 3. सप्तमेश या विवाह का कारक षष्ठ, अष्ट या द्वादश भाव में हो तो मतभेद, पृथकत्व तथा तलाक होता है। 4. सप्तमेश बुध हो, सप्तमेश द्विस्वभावी हो या द्विस्वभावी राशि में स्थित हो तो बहु विवाह योग होता है। 5. गुरु/शुक्र, सप्तमेश, द्वितीयेश, नवमेश अथवा दशमेश की सप्तम में स्थिति, दृष्टि तथा युति की दशा, अंतर्दशा, प्रत्यंतर दशा में विवाह हो सकता है। माता-पिता संबंधी प्रश्नोत्तर हेतु निम्न सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। 1. चंद्र की केंद्र में स्थिति गांव/मुहल्ले में ही अपने स्थान पर स्थिर है। 2. चंद्र की केंद्र से बाहर स्थिति में व्यक्ति का अपने घर/गांव/मुहल्ले में होना असंभावित। 3. अन्य स्थान स्थित चंद्र के केंद्र में प्रवेश, अन्य राशि में स्थित चंद्र के चर राशि में प्रवेश का समय क्रमशः लौट आने की संभावना, लौट आने के लिए अपने गंतव्य की और खाना हो चुका होगा कि संभावना व्यक्त करता है। 1. चतुर्थ स्थान तथा चतुर्थेश से माता का विचार होता है। 2. नवम/दशम स्थान तथा नवमेश/दशमेश से पिता का विचार होता है। 3. दिन में जन्म हो तो शुक्र से और रात्रि में जन्म हो तो चंद्र से माता का विचार होता है। 4. दिन में जन्म हो तो रवि से और रात्रि में जन्म हो तो शनि से पिता का विचार होता है।

ll जन्मकुंडली में स्थित ग्रहों कि युतियां, llग्रहों कि युतियां चाहे वो शुभ हों या अशुभ, उनका असर तभी होगा जब वह ग्रह अपन...
23/07/2025

ll जन्मकुंडली में स्थित ग्रहों कि युतियां, ll
ग्रहों कि युतियां चाहे वो शुभ हों या अशुभ, उनका असर तभी होगा जब वह ग्रह अपने दीप्तांश के अनुसार एक दूसरे के दायरे में होंगे, अन्यथा वह युति कोई फल प्रदान नहीँ करेगी.....ग्रहों के दीप्तांश इस प्रकार हैं.... सूर्य(15)चंद्र(12)मंगल(8)बुध(7)गुरु(9)शुक्र(7)शनि(9)
उदाहरण के लिये किसी की पत्रिका में गजकेसरी योग है और गुरु का अंश 25 और चंद्र का अंश 5 है तो दोनों के अंश को जोड़ कर (25+5)=30अंश का आधा यानी कि 15 अंश आएगा और दोनों के दीप्तांश के जोड़(12+9)=21 का आधा 10.5 है , यानि कि गुरु चंद्र की युति के मध्य अगर 10.5 अंश से अधिक का अंतर है तो वह युति अपना फल नही देगी......इसी तरह सभी ग्रहों को देखेंगे, कई जातक असमंजस में रहते हैं कि उनके चार्ट में 4 या 5 ग्रह युति में हैं तो किस युति का फल प्राप्त होगा तो उसके लिए इस विधि द्वारा ग्रहों के दीप्तांश से युति फल देखा जाएगा
(राहु केतु को इसमें शामिल नही किया गया है क्योंकि वह छाया ग्रह हैं वह जिससे युति करेंगे वैसा फल देंगे ही देंगे

ll Acharya Krishna Mishra ll

#ज्योतिष

21/07/2025

#वैदिक #ज्योतिष में प्रश्न शास्त्र का आधार क्या है ?
प्रश्न कुंडली बनाने के लिए तिथि, समय और स्थान कौन सा लिया जाना चाहिए और क्यों? प्रश्न कुंडली के विश्लेषण हेतु किन-किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? प्रश्न विचार हेतु कृष्णमूर्ति पद्धति के सिद्धांत क्या है और यह पद्धति किस हद तक सक्षम है? उत्तर: हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्माजी, विष्णु भगवान के पास भविष्य से संबंध रखने वाली चिंताओं के समाधान हेतु प्रश्न सीखने की इच्छा से गये, तब से प्रश्नशास्त्र की उत्पत्ति मानी गयी है। प्रश्न शास्त्र के द्वारा भविष्य सुनियोजन के लिए सही दिशा में सलाह देना, यथा शक्ति प्रयत्नों के लिए मार्ग बतलाना है। बहुत से व्यक्ति अपने प्रयासों को एक दिशा में रखते हुए कार्य करते हैं। लेकिन वहां सफलता नहीं मिलती है तो मार्ग बदलने को विवश हो जाते हैं। ऐसे में यदि उन्हें पहले ज्योतिषीय मार्गदर्शन मिल जाता है तो उनके जीवन का स्वरूप कुछ और ही होता। एक व्यक्ति अपना भाग्य उचित क्रिया प्रयासों कर्मों से बदल सकता है। भाग्य कभी भी निर्धारित नहीं है। हमारे वर्तमान कर्म ही भाग्य को अच्छे कर्मफल की सीमा में बदल सकते हैं। प्रश्न शास्त्र की आवश्यकता एवं आधार प्रश्न शास्त्र की आवश्यकता जब महसूस की गयी तब जातक का जन्म समय, जन्म तिथि तथा जन्म स्थान उपलब्ध नहीं हो पाता था तथा शुद्ध कुंडली का अभाव पाया गया ऐसे में सही फल कथन मुश्किल था। ज्योतिष, वेदांग के छः अंगों में से एक है जिसमें शिक्षा, कला, निरूक्त, छंद, व्याकरण तथा ज्योतिष है। ज्योतिष में गणित, संहिता तथा होरा तीन स्कन्ध है। 1. प्रथम स्कंध - गणित- इसमें खगोल विज्ञान और ज्योतिष गणित है। 2. द्वितीय स्कंध - संहिता-इसमें प्राकृतिक तथा भूकंप, मौसम, अकाल महामारी है। 3. तृतीय स्कंध - होरा- इसमें जातक की जन्मकालीन फलित ज्योतिष का वर्णन होता है। बाद में ज्योतिष को छः स्कन्धों में बांटा गया जो गणित, संहिता, होरा, शकुन, मुहूर्त और प्रश्न है। 4. चतुर्थ स्कन्ध - इसमें शकुन या पूर्वाभास, भविष्य में घटने वाली घटनाओं तथा तथ्यों का प्रभाव का समावेश है। 5. पंचम स्कन्ध: इसमें मुहूर्त (नक्षत्र, तिथि, वार, योग करण) अनुकूल समय ज्ञान करने के लिए 6. षष्ठ स्कंध: इसमें प्रश्न, घटना विचार के समय कुंडली से जानकारी ले लेना शामिल है। इस प्रकार प्रश्न शास्त्र छठा स्कंध है, इसमें घटना की सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है, लेकिन जन्मकुंडली का महत्व भी कम नहीं है। जब जन्मकुंडली में कोई घटना प्रत्याशित हो और प्रश्न कुंडली में उसकी पुनरावृत्ति होती हो तो घटित होना निश्चित है। जन्मकुंडली और प्रश्नकुंडली का आंतरिक संबंध पिछले तथा वर्तमान कर्मों की स्थिति दर्शाता है। जन्मकुंडली पर ग्रहों का शुभ प्रभाव पिछले जन्म के अच्छे कर्मों की ओर संकेत करता है। जबकि अशुभ प्रभाव बुरे कर्मों को बताता है। जन्मकुंडली में अच्छी दशा और प्रश्न कुंडली में बुरा समय वर्तमान जीवन में प्रबल अशुभ कर्मों को दर्शाता है। यदि जन्मकुंडली में एक अशुभ दशा और प्रश्न कुंडली में अच्छा समय वर्तमान शुभ कार्यों को दर्शाता है। दोनों कुंडलियों का अच्छा, बुरा समय पूर्व जन्म के अच्छे बुरे कार्यों का संबंध है। प्रश्न कुंडली के लिए तिथि, समय स्थान क्या हो ? प्रश्नकुंडली बनाते समय तिथि, समय और स्थान के लिये ठीक उसी सिद्धांत को अपनाया जाना चाहिए जिस प्रकार किसी जातक की कुंडली बनायी जाती है। जन्मकुंडली किसी भी दिन, समय और स्थान पर बनायी जाये लेकिन उसके लिये जन्म तिथि, समय और स्थान वही लिया जाता है जो वास्तविक होता है। इसी प्रकार प्रश्नकुंडली बनाते समय भी प्रश्न का जन्म समय, तिथि और स्थान वही लिये जाने चाहिये जिस समय जातक के मन में प्रश्न जन्म लेता है। क्योंकि यह वह समय और स्थान होता है जब ग्रह जातक के मन को प्रश्न के लिये स्पंदित करता है। उसके पश्चात प्रश्नकुंडली बनाने के लिये गणना क्रिया किसी भी समय की जा सकती है। परंतु प्रश्न का समय और स्थान पहले वाला ही लिया जाना चाहिए, जब प्रश्न ने जन्म लिया था। इसके विपरीत कुछ ज्योतिषीयों का मानना है कि प्रश्न कुंडली बनाने के लिए तिथि, समय तथा स्थान वह लिया जाना चाहिए जहां पर प्रश्न किया गया है। प्रश्न कत्र्ता जब ज्योतिषी के पास प्रश्न करने आये तब का समय लिया जाना चाहिए चाहे प्रश्नकत्र्ता ने यह प्रश्न अपने मन में कभी ही सोच लिया हो। दूरभाष पर किये गये प्रश्न समय भी वही लिया जाना चाहिए। जब प्रश्नकर्ता का फोन ज्योतिषी के पास आता हो या ज्योतिषी के अनुपस्थिति में उसके घर पर आया हो। पत्र प्राप्ति के मामले में प्रश्न का समय वह होगा जब ज्योतिष को वह पत्र प्राप्त होवे। स्थान के मामले में जहां ज्योतिषी प्रश्न कुंडली तैयार करे तथा फलित करे वह स्थान लिया जाना चाहिए। वास्तव में जब जातक विदेश में हो और प्रश्न दिल्ली में पूछ रहा हो तो हमें प्रश्नकुंडली बनाने के लिये वहीं की तिथि, समय और स्थान लेना चाहिए, जिस प्रकार जन्मकुंडली का विवरण लिया जाता है। कोई व्यक्ति भारत में किसी और शहर से प्रश्न पत्र द्वारा पूछता है तो भी प्रश्न की तिथि, समय और स्थान जातक को लिखकर भेजनी चाहिए कि कब प्रश्न उसके दिमाग में आया। और जब जातक साक्षात प्रश्न पूछने आया हो तो प्रश्नकुंडली के लिये तिथि, समय और स्थान तत्काल का लिया जाना चाहिए। जहां तक संभव हो, एक बार में सिर्फ एक प्रश्न का ही उत्तर दिया जाना चाहिए। परंतु आपात स्थिति में जब प्रश्नकर्ता एक से अधिक प्रश्नों का उत्तर जानना चाहे तो निम्नलिखित विधि से एक से अधिक प्रश्नों का उत्तर दिया जा सकता है। प्रथम प्रश्न लग्न से दूसरा प्रश्न चंद्रमा से तीसरा प्रश्न सूर्य से चैथा प्रश्न बृहस्पति से पांचवा प्रश्न बुध/शुक्र में से जो बली हो। छठा प्रश्न बुध/शुक्र में से जो बलहीन हो। दक्षिण भारत में ज्योतिषी एक समय में 12 प्रश्नों का उत्तर कुंडली मंे ग्रहों की स्थिति और इसके नवांश के प्रयोग द्वारा करते हैं। प्रथम प्रश्न- लग्न से द्वितीय प्रश्न नवांश लग्न से तृतीय प्रश्न चंद्रमा से चतुर्थ प्रश्न नवांश चंद्रमा से पंचम प्रश्न सूर्य से षष्ठम प्रश्न नवांश सूर्य से सप्तम प्रश्न बृहस्पति से अष्टम प्रश्न नवांश बृहस्पति से नवम प्रश्न शुक्र/बुध जो बली हो दशम नवांश शुक्र/बुध जो बली हो एकादश प्रश्न बुध/शुक्र जो बलहीन हो द्वादश प्रश्न नवांश बुध/शुक्र जो बलहीन हो। सामान्यतया एक प्रश्नकर्ता के विविध प्रश्नों का उत्तर विभिन्न भाव कार्येश और कारक से कर सकते हैं। यदि दूसरा प्रश्नकर्ता भी उसी समय (लग्न के समय) आ जाये तो हमें उस प्रश्न को चंद्र लग्न से विश्लेषित करना चाहिए। यदि तीसरा प्रश्नकर्ता आता है तो हम उसके सभी प्रश्नों का उत्तर सूर्य लग्न से दे सकते हैं और इसी तरीके से बृहस्पति, शुक्र और बुध जो बली हो के अनुसार कर सकते हैं। प्रश्न शास्त्र में विश्लेषण के लिए दृष्टियां तथा योग द्रष्टियां: प्रश्न शास्त्र में ताजिक दृष्टियां भी होती हैं जिनका विवरण निम्न प्रकार है। 1. प्रत्यक्ष मित्र दृष्टि - 5, 9 2. गुप्त मित्र दृष्टि - 3, 11 3. प्रत्यक्ष शत्रु दृष्टि 1, 7 4. गुप्त शत्रु दृष्टि 4, 10 5. सम/तटस्थ दृष्टि - 2, 12, 6, 8 ग्रहों की एक-दूसरे से 3, 5, 9 तथा 11 स्थानों पर दृष्टियां मित्र दृष्टियां मानी गयी हैं तथा 1, 4, 7 और 10 स्थानों पर शत्रु दृष्टियां तटस्थ/सम दृष्टियों को दृष्टि नहीं माना गया है। ग्रहों का दीप्तांश ग्रहों के प्रभाव क्षेत्र को दीप्तांश कहते हैं। इसमें दोनों ग्रहों की एक ही राशि में होना अनिवार्य नहीं है। इन ग्रहों का एक दूसरे से 3, 5, 9, 11 स्थिति में होने पर मित्र तथा 1, 4, 7, 10 होने पर शत्रु दृष्टि में दीप्तांश सीमा में होने पर माने जाते हैं प्रत्येक ग्रह की दीप्तांश इस प्रकार है। योग: लग्नेश की अन्य ग्रह के साथ ताजिक दृष्टि तीन प्रकार की होती है। इशराफ, इत्थसाल और पूर्ण इत्थसाल। इशराफ: यह पिछली घटना को सूचित करता है कि कुछ ना कुछ घटित हो चुका है। चंद्रमा का कार्येश के साथ इशराफ हो तब व्यक्ति मन में कुछ निश्चित कर ज्योतिषी के पास आता है। इत्थसाल: यह भविष्य की ओर तथा पूर्ण इत्थसाल वर्तमान को दर्शाता है। इकबाल योग: जब सभी ग्रह केंद्र तथा पणफर भावों में हो तो इकबाल योग बनता है। यह योग शुभ परिणाम देता है। इसका प्रयोग जन्म कुंडली, वर्ष कुंडली तथा प्रश्न कुंडली में समान रूप से किया जा सकता है। प्रश्न कुंडली में 8 भाव में कोई भी ग्रह कार्य सिद्धि में बाधा उत्पन्न करते हैं। इन्दुवार योग: जब सभी ग्रह आपोक्लिम भावों (3, 6, 9, 12) में स्थित हो तो यह योग बनता है। ऐसा योग प्रतिकूल परिणाम देता है लेकिन 9 वें भाव में ग्रह शुभ फल प्रदान करता है। इत्थसाल योग: जब शीघ्र गति ग्रह, मंद गति ग्रह के पीछे हो तथा दोनों ग्रहों यानि कि लग्नेश और कार्येश में परस्पर ताजिक दृष्टि हो तथा दोनों ग्रह अपने दीप्तांश सीमा की औसत में हो जैसे सूर्य के दीप्तांश 150 और मंगल के 80 हैं। इन दोनों की औसत 15$8 »1105’ है ये दोनों ग्रह अन्य शर्तों को पूरा करने पर एक दूसरे से 1105’ के भीतर है अतः इत्थसाल योग बनता है। यह भविष्य में घटित होने वाली घटना को सूचित करता है। लग्नेश तथा अष्टमेश बीच इत्थसाल विपत्तियों बाधाओं को दर्शाता है। इशराफ योग: इसक निर्माण तब होता है जब शीघ्र गति ग्रह मंद गति ग्रह से 10 से आगे हो, दोनों की परस्पर दृष्टि हो, दोनों ग्रह अपने दीप्तांश सीमा की औसत में हो। यह योग पिछली घटनाओं को दर्शाता है, यह प्रतिकूल योग है। नक्त योग: जब लग्नेश और कार्येश के बीच कोई परस्पर दृष्टि न हो और ये दोनों एक तीसरे ग्रह से संयुक्त हो तथा औसत दीप्तांश सीमा में हो, यहां तीसरा ग्रह तीव्र गति का होना चाहिए। रद्द योग: इसमें लग्नेश और कार्येश का इत्थसाल हो इनमें से कोई एक वक्री, अस्त, नीच का 6, 8, 12 भाव में हो तो घटना का संबंध दर्शाता है। प्रश्न कुंडली में विभिन्न भाव से भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञान इस प्रकार किया जाता है। भाव 1, 2, 3, 4 वर्तमान का ज्ञान 5, 6, 7, 8 भविष्य का ज्ञान 9, 10, 11, 12 भूत का ज्ञान प्रश्न कुंडली का परीक्षण करते समय निम्न बिंदुओं को दृष्टिगत रखा जाना चाहिए: लग्न में उदित राशियों के अनुसार शीर्षोदय राशि - 3, 5, 6, 7, 8, 11 फल - कार्य सिद्धि के लिए शुभ पृष्ठोदय राशि - 1, 2, 4, 9, 10 फल - समस्याएं, बाधाएं, असफलता उभयोदय राशि - 12 फल - मध्यम फल, प्रयासों से सफलता प्रश्न में उदित चर लग्न वर्तमान स्थिति में परिवर्तन दर्शाती है। जैसे यात्रा के होने, बीमारी के ठीक होने की स्थिति बताती है। चर लग्न पर शुभ ग्रहों की दृष्टि से परिवर्तन निश्चित होता है। अशुभ ग्रहों की दृष्टि होने पर मात्र आशा ही होती है, पूर्ण होना यह निश्चित नहीं होता। प्रश्न में स्थिर लग्न किसी भी परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं बताती जैसे - रोगी है तो ठीक नहीं होगा, यात्रा नहीं होगी इत्यादि। Û प्रश्न में उदित लग्न द्विस्वभाव राशि हो तो कार्य में देरी तथा कठिनाइयां बताती है साथ ही इसके अंश 0-15’ हो तो स्थिति स्थिर होती है यदि लग्न 150-300 के बीच हो तब इसे चर लग्न के निकटतम समझा जाये और उसके अनुसार परिणाम देगा। द्विस्वभाव लग्न दोनों ही स्थिति में देरी एवं प्रयासों के बाद सफलता दर्शाती है बशर्ते की विश्लेषण में कार्य सिद्धि लगती हो। स्थिर कार्य में स्थिर लग्न सदैव शुभ होती है। जैसे व्यवसाय नौकरी, मकान खरीदना आदि। प्रश्न के लिए लग्न में शुभ ग्रह अच्छा होता है तथा लग्न को बल प्रदान करता है, जबकि अशुभ ग्रह प्रश्न के लिए अच्छा नहीं होता। लग्न में एक अशुभ ग्रह विवाद, झगड़ा, न्यायिक मामले में अच्छा माना जाता है। प्रश्न कुंडली में प्रश्नकर्ता लग्न होता है तथा सप्तम भाव विपक्ष का होता है। लग्न में बैठा ग्रह सप्तम भाव को तथा सप्तम भाव में बैठा ग्रह लग्न को शुभ बना देता है। लग्नेश तथा कार्येश का संबंध होना अति आवश्यक लग्नेश लग्न का राशि स्वामी तथा कार्येश संबंधित भाव का स्वामी, जिस भाव से संबंधित प्रश्न है, इनकी दृष्टि या युति भाव फल देने में अनुकूल मानी जाती है। - लग्नेश और कार्येश, लग्न में स्थित हो। - लग्नेश और कार्येश कार्य भाव में स्थित हो। - लग्नेश और कार्येश में परिवर्तन हो। - लग्नेश लग्न को तथा कार्येश कार्य भाव को देखे। - कार्येश लग्न में स्थित होकर लग्नेश को देखता हो। - लग्नेश कार्य भाव में स्थित होकर कार्येश को देखता हो। - लग्नेश कार्य भाव को और कार्येश लग्न पर दृष्टि रखता हो। - लग्नेश कार्येश को तथा कार्येश लग्नेश को परस्पर दृष्टि में हो। - चंद्रमा की लग्नेश, कार्येश से युति हो। - लग्नेश तथा कार्येश एक दूसरे के निकटस्थ ताजिक दृष्टि में हो। प्रश्न की सफलता - प्रश्नकर्ता की इच्छाओं की सामान्य जानकारी हो। - बली भाव की स्थिति देखें। - लग्न में शीर्षोदय राशि हो। - लग्न, लग्नेश, चंद्रमा बली हो तथा शुभ भावों में हो। - लग्न, लग्नेश शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट हो। - केंद्र व त्रिकोण में शुभ ग्रह हो अशुभ ग्रह अन्य भाव में हो तथा 8 वां तथा 12वां भाव ग्रह रहित हो। - अशुभ ग्रह 3, 6, 11 भाव में शुभ होते हैं। - भाव, भावेश तथा कारक को शुभ होना चाहिए। - लग्नेश तथा कार्येश शुभ कर्तरी हो। - शुभ ग्रह 3, 5, 7, 11 में अच्छा परिणाम देते हैं। - शुभ ग्रह मिथुन, कन्या, तुला, कुंभ राशि में होना शुभ । - छठे भाव में शुभ ग्रह शुभ होते हैं। - उच्च, स्वक्षेत्री या मूल त्रिकोण राशि में ग्रह उस भाव के शुभ फल देने में सक्षम होता है। - नौकरी व्यवसाय के लिए दशम/ सप्तम में शुभ ग्रह अच्छा होता है। इन शुभ ग्रहों की दृष्टि भी अच्छी होती है। 1, 2, 5 भाव में शुभ ग्रह, सम्मान और समृद्धिदायक है। प्रश्न की असफलता - पृष्ठोदय लग्न को अशुभ ग्रह देखे तो अशुभ - लग्न लग्नेश तथा चंद्रमा बलहीन हो तो अशुभ - 6, 8, 12 भाव में लग्नेश प्रश्न की असफलता दर्शाता है। 6, 8, 12 भाव के स्वामी लग्न में हो तब भी असफलता। - भाव का स्वामी 6, 8, 12 स्थान पर अपने से चला जाये तो भी अशुभ। - चंद्रमा स्थित राशि स्वामी 6, 8, 12 में हो तो भी अशुभ। - झगड़े न्यायालयों के मामलों को छोड़कर अन्य मामलों में लग्न में क्रूर ग्रह शुभ नहीं। - लग्न से तथा संबंधित भाव से केंद्र त्रिकोण में अशुभ ग्रहों की स्थिति उस भाव के कारकत्व को नष्ट करती है। 8वें तथा 12 वें भाव पर अशुभ प्रभाव व दृष्टि प्रश्न के लिए प्रतिकूल है। - लग्न, लग्नेश, कार्य भाव, कार्येश पाप कर्तरी हो तो असफलता। - नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री ग्रह उस भाव का कारकत्व खत्म करता है। - ग्रह युद्ध के पराजित ग्रह प्रतिकूल परिणाम देते हैं। - सप्तम भाव का उच्च, मूल त्रिकोण अथवा स्वराशि का ग्रह यदि कम अंश का या कमजोर हो तो शुभ परिणाम नहीं दे पाता। - लग्न में चंद्रमा शुभ नहीं। - जन्म लग्न से अष्टम लग्न, प्रश्न लग्न हो तो अशुभ, इसी प्रकार जन्म के चंद्र से प्रश्न चंद्र अष्टम अशुभ होता है। - लग्नेश कार्येश का संबंध न होना, प्रश्न की असफलता है। - लग्न, लग्नेश तथा कार्येश पर वक्री ग्रह की दृष्टि अशुभ होती है। - वक्री ग्रह जिस भाव में स्थित है उसके कारकत्व को नष्ट करता है। वक्री ग्रह: जब वक्री ग्रह शुभ भाव का स्वामी होकर शुभ ग्रह हो तो कार्य की पुनरावृत्ति देती है, जो प्रश्न के लिए शुभ है। जब वक्री ग्रह शुभ भाव का स्वामी होकर अशुभ ग्रह हो तो कार्य की पुनरावृत्ति देती है। बाधाएं तनाव देकर शुभ है। जब वक्री ग्रह 6, 8, 12 भाव का स्वामी होकर शुभ ग्रह हो तो प्रश्न की अनुकूलता समस्या और बाधाओं के कारण संदिग्ध है। जब वक्री ग्रह 6, 8, 12 भाव का स्वामी होकर अशुभ ग्रह हो तो तनाव, बाधाएं कार्य में असफलता देते हैं। कार्य भाव का विश्लेषण लग्न मानकर भी करना चाहिए। विश्लेषण के सिद्धांत लग्नेश तथा कार्येश को संबंध बनाने वाले ग्रह का विश्लेषण में विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए साथ ही कुंडली में बनने वाले ताजिक योगों, उनकी दृष्टि, वक्री ग्रह, नीच, अस्त, शत्रु क्षेत्री तथा 6, 8, 12 भाव के स्वामी ग्रहों, राहु तथा केतु ग्रह के निकटतम अंशों की युति दृष्टि भी फलकथन। प्रश्न कुंडली विश्लेषण में महत्वपूर्ण है जिसका वर्णन ऊपर अंकित किया जा चुका है। चंद्रमा का महत्वपूर्ण स्थान है जो एक प्रश्न की मूर्ति की ओर एक मानसिक अभिरूचि तथा इच्छा को सूचित करता है। यदि लग्नेश तथा कार्येश के बीच चंद्रमा का दृष्टि या युक्ति संबंध हो तो सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं। इन तीनों का संगम त्रिवेणी का उदगम स्थल बन जाता है। कृष्णमूर्ति पद्धति कृष्णमूर्ति पद्धति के अंतर्गत आरूढ़ निश्चित करने के लिए प्रश्नकर्ता से 1 से 249 के बीच की कोई संख्या पूछकर आरूढ़ राशि सुनिश्चित की जाती है। इसकी सुविधा के लिए कृष्णमूर्ति जी द्वारा एक सारणी तैयार की गयी है। जिसमें राशि स्वामी, नक्षत्र स्वामी तथा उप स्वामी को 12 राशियों को 249 भागों में विभक्त किया गया है। प्रश्न विचार हेतु कृष्णमूर्ति पद्धति के कुछ मुलभूत सिद्धांत निम्नांकित हैं। प्रत्येक नक्षत्र के विंशोत्तरी दशा के अनुपात में नौ भाग किये गये हैं जिन्हें सब अथवा उप-नक्षत्र कहा जाता है। अधिक सूक्ष्म अध्ययन करने हेतु इन उप-नक्षत्रों के भी नौ-नौ भाग किये जाते हैं। इन्हें सब -सब अथवा उप-उप नक्षत्र कहा जाता है। उप-उप-नक्षत्र का उपयोग विशेषकर युगल जातकों की कुंडलियों के अध्ययन में किया जाता है। भारतीय भाव मध्य पद्धति के विपरीत कृष्णमूर्ति भाव प्रारंभ पद्धति प्रतिपादित करते हैं। भाव साधन करने हेतु इन्होंने पाश्चात्य पद्धति को स्वीकार करते हुए ‘राफेल्स टेबल आॅफ हाउसेस’’ के उपयोग पर बल दिया है। प्रश्न के स्वरूप के आधार पर किन भावों का अध्ययन किया जाना चाहिए? इस विषयक निश्चित मत स्पष्ट कर दिया गया है। उदाहरणार्थ-वैवाहिक प्रश्नों के लिए द्वितीय, सप्तम तथा एकादश माता के लिए चतुर्थ एवं पिता के लिए नवम तथा दशम भावों का अध्ययन किया जाता है। उप-नक्षत्र स्वामी कुंडली के आधार पर प्राप्त होने वाले फल दर्शाता है। भावस्थ तथा भावेश ग्रह फल प्राप्ति के मार्गों का संकेत देते हैं। उप-उप नक्षत्र स्वामी के सहयोग से ज्ञात होता है कि कोई घटना घटित होगी या नहीं। इस पद्धति में निश्चित अयनांशों का उपयोग करने की सलाह दी जाती है। अयनांशों की वार्षिक गति 50.2388475 विकला मानी गई है। यथासंभव कृष्णमूर्ति अयनांशों का ही उपयोग करना श्रेयस्कर होता है। किसी भी ग्रह को पूर्णतः शुभ अथवा पूर्णतः अशुभ नहीं माना गया है। सभी ग्रह दोनों ही प्रकार के प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। समय निर्धारण के लिए सूर्य, चंद्र तथा दशा-अंतर्दशा स्वामियों के गोचर भ्रमण का अध्ययन किया जाता है। कृष्णमूर्ति ग्रहयोगों तथा ग्रहदृष्टियोगों को मान्यता देते हैं। इसमें उच्च ग्रह, स्वक्षेत्र ग्रह, मूल त्रिकोण ग्रह, मित्र क्षेत्र, शत्रु क्षेत्र, नीच ग्रह आदि बातों की अपेक्षा उप-नक्षत्र स्वामी को अधिक महत्व दिया गया है। कुंडली के किसी भी भाव में स्थित वक्री ग्रह को अशुभ नहीं माना गया है। इनका मानना है कि कुंडली में स्थित वक्री ग्रह नपुंसक अथवा बलहीन हो जाता है। इसी प्रकार वक्री ग्रह के नक्षत्र में स्थित ग्रह भी वांछित परिणाम तब तक नहीं देते, जब तक वक्री ग्रह मार्गी नहीं हो जाता। कृष्णमूर्ति पद्धति को आधुनिक प्रश्न ज्योतिष के लिए एक वरदान के रूप में देखा जा सकता है। इस पद्धति की उपरोक्तानुसार अपनी नियमावली है तथा अपने सिद्धांत हैं। उनका ज्ञान हो जाने के बाद यह पद्धति स्वतः स्पष्ट हो जाती है। दूसरे शब्दों में उनके नियम तथा सिद्धांत का ज्ञान हो जाने के पश्चात् यह एक सरल एवं सुगम्य पद्धति है। इनके नियमों का पालन करते हुए तथा इनके सिद्धांतों पर चलते हुए घटित तथा निकट घट रही घटनाओं का विश्लेषण करने हेतु या फिर किसी भी प्रकार के प्रश्न विचार हेतु यह पद्धति लगभग पूर्णतः सक्षम है ा में निपुणता/प्रवीणता हेतु निम्न सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। 1. जन्म लग्न, चंद्र लग्न और गुरु लग्न से भी यदि पंचमेश बुध, बृहस्पति, शुक्र के साथ बैठे हों (केंद्र-त्रिकोण-एकादश) तो जातक बड़ा विद्वान होता है। 2. रवि से वेदान्त 3. चंद्र से वैद्यक, काव्य-कुशलता, धार्मिक विचार और अध्यात्म विद्या। 4. मंगल से न्याय एवं गणित 5. बुध से विद्याध्ययन और विद्याग्रहण की शक्ति, वैद्यक। 6. वृहस्पति से विद्या-विकास, वेद, वेदान्त, व्याकरण और ज्योतिष। 7. शुक्र से प्रभाव, प्रभावशाली व्याख्यान शक्ति एवं साहित्य, गायन विद्या। 8. शनि से ज्ञान, अंग्रेजी तथा विदेशी भाषा। 9. शनि और राहु अंतर्राष्ट्रीय (अन्यदेशीय) विद्या। 10. बुध तथा शुक्र से विद्वता, पांडित्य, उहापोह तथा कल्पना शक्ति। ा में निपुणता/प्रवीणता हेतु निम्न सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। 1. जन्म लग्न, चंद्र लग्न और गुरु लग्न से भी यदि पंचमेश बुध, बृहस्पति, शुक्र के साथ बैठे हों (केंद्र-त्रिकोण-एकादश) तो जातक बड़ा विद्वान होता है। 2. रवि से वेदान्त 3. चंद्र से वैद्यक, काव्य-कुशलता, धार्मिक विचार और अध्यात्म विद्या। 4. मंगल से न्याय एवं गणित 5. बुध से विद्याध्ययन और विद्याग्रहण की शक्ति, वैद्यक। 6. वृहस्पति से विद्या-विकास, वेद, वेदान्त, व्याकरण और ज्योतिष। 7. शुक्र से प्रभाव, प्रभावशाली व्याख्यान शक्ति एवं साहित्य, गायन विद्या। 8. शनि से ज्ञान, अंग्रेजी तथा विदेशी भाषा। 9. शनि और राहु अंतर्राष्ट्रीय (अन्यदेशीय) विद्या। 10. बुध तथा शुक्र से विद्वता, पांडित्य, उहापोह तथा कल्पना शक्ति। जन्म लग्न, चंद्र लग्न और बुध लग्न से भी यदि बुध दशम भाव से संबंधित हो जो जातक बहुत बड़ा व्यवसायी होता है। 2. जन्म लग्न, चंद्र लग्न और रवि लग्न से भी यदि रवि दशम भाव से संबंधित हो तो जातक बहुत बड़ा अधिकारी होता है। 3. जन्म लग्न, चंद्र लग्न और गुरु लग्न से भी यदि गुरु दशम भाव से संबंधित हो तो जातक बहुत बड़ा राजनेता होता है। जन्म लग्न, चंद्र लग्न और शुक्र लग्न से भी यदि शुक्र दशम भाव से संबंधित हो तो जातक बहुत बड़ा साहित्यकार होता है। 5. जन्म लग्न, चंद्र लग्न और शनि लग्न से भी यदि शनि दशम भाव से संबंधित हो जो जातक बहुत बड़ा सेवक होता है। 6. जन्म लग्न, चंद्र लग्न और मंगल लग्न से भी यदि मंगल दशम भाव से संबंधित हो तो जातक बहुत बड़ा सेनाधिपति होता है। 7. जन्म लग्न, चंद्र लग्न और पुनः चंद्र लग्न से भी यदि चंद्र दशम भाव से संबंधित हो तो जातक बहुत बड़ा कलाकार होता है। स) शासकीय सेवा हेतु निम्न सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। 1. दशम भाव से शासकीय अशासकीय सेवा, उद्योग-धंधा, व्यापार-व्यवसाय आदि का स्वरूप ज्ञात किया जा सकता है। 2. द्वितीय षष्ठ एवं दशम भाव से सेवा प्राप्त होने अथवा व्यवसाय प्रारंभ होने का संभावित समय ज्ञात किया जा सकता है। 3. दशम भाव का तृतीय, पंचम अथवा नवम भाव से संबंध बनता हो तो व्यवसाय/सेवा में परिवर्तन की संभावनाएं बढ़ जाती है। 4. सेवा मुक्ति समय हेतु प्रथम, पंचम तथा नवम भाव की ओर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। प्रथम, पंचम तथा नवम क्रमशः द्वितीय, षष्ठ तथा दशम भाव के व्यय भाव होते हैं। 5. दशम भाव से बुध का संबंध और बुध की महादशा, अंतर्दशा और प्रत्यंतर दशा भी व्यवसाय प्रारंभ/ सेवा प्राप्ति में सहायक होता है। (द) राजनैतिक सफलता हेतु निम्न सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। 1. तृतीय एकादश संबंध अधिकृत उम्मीदवारी के लिए किसी राजनैतिक संस्था से टिकिट उपलब्ध करा सकती है। 2. चतुर्थ भाव से चुनाव स्पद्र्धा में यश प्राप्त हो सकता है। 3. षष्ठ भाव विजय की संभावना में वृद्धि करता है। 4. षष्ठ, दशम और एकादश से अनुकूल परिणाम प्राप्त होते हैं। 5. लग्न-एकादश संबंध से सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है। (स) विवाह विषयक प्रश्नोत्तर हेतु निम्न सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। 1. विवाह का कारक-स्त्रियों के लिए गुरु और पुरुषों के लिए शुक्र होता है। 2. तुला राशि वैवाहिक संबंध स्थापित करने और वृश्चिक राशि वैवाहिक मेल-मिलाप हेतु कारक माना जाता है। 3. सप्तमेश या विवाह का कारक षष्ठ, अष्ट या द्वादश भाव में हो तो मतभेद, पृथकत्व तथा तलाक होता है। 4. सप्तमेश बुध हो, सप्तमेश द्विस्वभावी हो या द्विस्वभावी राशि में स्थित हो तो बहु विवाह योग होता है। 5. गुरु/शुक्र, सप्तमेश, द्वितीयेश, नवमेश अथवा दशमेश की सप्तम में स्थिति, दृष्टि तथा युति की दशा, अंतर्दशा, प्रत्यंतर दशा में विवाह हो सकता है। माता-पिता संबंधी प्रश्नोत्तर हेतु निम्न सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। 1. चंद्र की केंद्र में स्थिति गांव/मुहल्ले में ही अपने स्थान पर स्थिर है। 2. चंद्र की केंद्र से बाहर स्थिति में व्यक्ति का अपने घर/गांव/मुहल्ले में होना असंभावित। 3. अन्य स्थान स्थित चंद्र के केंद्र में प्रवेश, अन्य राशि में स्थित चंद्र के चर राशि में प्रवेश का समय क्रमशः लौट आने की संभावना, लौट आने के लिए अपने गंतव्य की और खाना हो चुका होगा कि संभावना व्यक्त करता है। 1. चतुर्थ स्थान तथा चतुर्थेश से माता का विचार होता है। 2. नवम/दशम स्थान तथा नवमेश/दशमेश से पिता का विचार होता है। 3. दिन में जन्म हो तो शुक्र से और रात्रि में जन्म हो तो चंद्र से माता का विचार होता है। 4. दिन में जन्म हो तो रवि से और रात्रि में जन्म हो तो शनि से पिता का विचार होता है।

ll Acharya Krishna Mishra ll

आचार्य कृष्णा भारद्वाज

Address

Ujjain
456006

Opening Hours

Monday 9am - 5pm
Tuesday 9am - 5pm
Wednesday 9am - 5pm
Thursday 9am - 5pm
Friday 9am - 5pm
Saturday 9am - 5pm
Sunday 12:30am - 4pm

Telephone

+918755023373

Website

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when Acharya Krishna Mishra posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Contact The Practice

Send a message to Acharya Krishna Mishra:

Share

Share on Facebook Share on Twitter Share on LinkedIn
Share on Pinterest Share on Reddit Share via Email
Share on WhatsApp Share on Instagram Share on Telegram