17/04/2021
भगवान श्री रजनीश
प्रवचन श्रृंखला
शिक्षा में क्रांति
प्रवचन-06
युक्रांद क्या है?
मेरे प्रिय आत्मन्!
युवक क्रांति ल, युक्रांद की इस पहली बैठक को संबोधित करते हुए मैं अत्यंत आनंदित हूं। युवक क्रांति दल के संबंध में पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि मैं युवक किसे कहता हूं। युवक क्रांति दल की दृष्टि में युवक होने का संबंध उम्र और आयु से नहीं है। युवक से अर्थ हैः ऐसा मन जो सीखने को सदा तत्पर है--ऐसा मन जिसे यह भ्रम पैदा नहीं हो गया है कि जो भी जानने योग्य था, वह जान लिया गया है--ऐसा मन जो बूढ़ा नहीं हो गया है और स्वयं को रूपांतरित और बदलने को तैयार है। बूढ़े मन से अर्थ होता है ऐसा मन जो अब आगे इतना लोचपूर्ण नहीं रहा है कि नये को ग्रहण कर सके, नये का स्वागत कर सके। बूढ़े मन का अर्थ हैः पुराना पड़ गया मन। उम्र से उसका भी कोई संबंध नहीं है। आदमी के शरीर की उम्र होती है, मन की कोई उम्र नहीं होती है। मन की दृष्टि होती है, धारणा होती है।
इस देश में युवक हजारों वर्षों से पैदा होने बंद हो गए हैं। इस देश में बचपन आता है और बुढ़ापा आता है; युवक कभी भी पैदा नहीं होता है। वह बीच की कड़ी खो गई है, इसलिए तो देश इतना पुराना पड़ गया है, इतना जरा-जीर्ण हो गया है, इतना बूढ़ा हो गया है। जिस देश में युवक होते हों, उस देश में इतना बुढ़ापा आने का कोई भी कारण नहीं था। हम से ज्यादा बूढ़ा देश पृथ्वी पर और कहीं नहीं है। हमारी पूरी आत्मा बूढ़ी और पुरानी पड़ गई है। हमारी सारी तकलीफ और पीड़ा के पीछे बुनियादी कारण यही है कि हमारे पास युवा चित्त, यंग माइंड नहीं है।
युवक क्रांति दल इस देश में युवा चित्त को पैदा करना चाहता है। युवा-चित्त! युवा-चित्त का अर्थ हैः जो सख्त नहीं हो गया, कठोर नहीं हो गया, पत्थर नहीं हो गया, अभी बदल सकता है, रूपांतरित हो सकता है, अभी सीख सकता है--उसने सब कुछ सीख नहीं लिया।
स्वामी रामतीर्थ की उम्र मुश्किल से तीस वर्ष थी और वे हिंदुस्तान के बाहर गए। पहली बार उन्होंने जापान की यात्रा की। वे जिस जहाज पर सवार थे उस जहाज के डेक पर एक जर्मन बूढ़ा जिसकी उम्र कोई नब्बे वर्ष होगी; जिसके हाथ-पैर कंपते थे, जिसे चलने में तकलीफ होती थी, जिसकी आंखें कमजोर पड़ गई थीं, वह चीनी भाषा सीख रहा था।
चीनी भाषा जमीन पर बोली जाने वाली कठिनतम भाषाओं में से एक है। चीनी भाषा को सीखना सामान्यतया बहुत श्रम की बात है। कोई दस-पंद्रह-बीस वर्ष ठीक से मेहनत करे तो चीनी भाषा में ठीक से निष्णात हो सकता है। बीस वर्ष जिसके लिए मेहनत करनी पड़े, नब्बे वर्ष का बूढ़ा उसे अ ब स से सीखना शुरू कर रहा हो, पागल है। कब सीखेगा वह? कब सीख पाएगा? कौन सी आशा है उसको बच जाने की कि वह बीस साल बचेगा? और अगर बीस साल बच भी जाए और निष्णात भी हो जाए चीनी भाषा में तो उसका उपयोग कब करेगा? जिस चीज को सीखने में पंद्रह-बीस वर्ष खर्च करने पड़ें उसके उपयोग के लिए भी तो दस, पच्चीस-पचास वर्ष हाथ में होने चाहिए। यह उपयोग कब करेगा? रामतीर्थ परेशान हो गए उसको देख-देख कर, परेशान हो गए और वह सुबह से शाम तक सीखने में लगा हुआ है। नहीं, बरदाश्त के बाहर हुआ तो उन्होंने तीसरे दिन उससे पूछा कि क्षमा करें, आप इतने वृद्ध हैं, नब्बे वर्ष पार कर गए मालूम पड़ते हैं, आप यह भाषा सीख रहे हैं, यह कब सीख पाएंगे? कब बच पाएंगे आप सीखने के बाद, कब इसका उपयोग करेंगे?
उस बूढ़े आदमी ने आंखें ऊपर उठाईं और उसने कहाः तुम्हारी उम्र कितनी है? रामतीर्थ ने कहाः मेरी उम्र कोई तीस वर्ष होगी। वह बूढ़ा हंसने लगा और उसने कहा, मैं तब समझ पाता हूं कि हिंदुस्तान इतना कमजोर, इतना हारा हुआ क्यों हो गया है। उस बूढ़े ने कहाः जब तक मैं जिंदा हूं और मर नहीं गया हूं और जब तक जिंदा हूं तब तक कुछ न कुछ सीख ही लेना है; नहीं, तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। मरना तो एक दिन है, वह तो जिस दिन मैं पैदा हुआ उसी दिन से तय है कि मरना एक दिन है। अगर मैं मृत्यु पर ध्यान रखता तो शायद कुछ भी नहीं सीख पाता क्योंकि एक दिन मरना है, क्योंकि एक दिन मरना है। लेकिन जब तक मैं जिंदा हूं, मैं पूरी तरह जिंदा रहना चाहता हूं। और पूरी तरह जिंदा वही रह सकता है जो जीते-जी एक-एक पल का, एक-एक क्षण का, नया कुछ सीखने में उपयोग कर रहा है।
जीवन का अर्थ हैः नये का रोज-रोज अनुभव। जिसने नये का अनुभव बंद कर दिया है वह मर चुका है, उसकी मृत्यु कभी की हो चुकी। उसका अब अस्तित्व पोस्थूमस है, वह मरने के बाद अब किसी तरह जी रहा है। उस बूढ़े आदमी ने कहा कि मैं सीखूंगा, जब तक जीता हूं, और परमात्मा से एक ही प्रार्थना है जब मैं मरूं तो मृत्यु के क्षण में भी सीखता हुआ ही मरूं ताकि मृत्यु भी मुझे मृत्यु जैसी न मालूम पड़े। वह भी जीवन प्रतीत हो।
सीखने की प्रक्रिया है--जीवन। ज्ञान की उपलब्धि है--जीवन। लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि हमने सीखना तो हजारों साल से बंद कर दिया है। हम नया कुछ भी सीखने को उत्सुक और आतुर नहीं हैं। हमारे प्राणों की प्यास ठंडी पड़ गई है, हमारी चेतना की ज्योति ठंडी पड़ गई है, हमें एक भ्रम पैदा हो गया है कि हमने सब सीख लिया है, हमने सब पा लिया, हमने सब जान लिया। जानने को अनंत शेष है। आदमी का ज्ञान कितना ही ज्यादा हो जाए, उस विस्तार के सामने ना-कुछ है जो सदा जानने को शेष रह जाता है। ज्ञान तो थोड़ा सा है, अज्ञान बहुत बड़ा है। उस अज्ञान को जिसे तोड़ना है उसे सीखते ही जाना होगा, सीखते ही जाना होगा, सीखते ही रहना होगा।
लेकिन भारत में यह सीखने की प्रक्रिया और युवा होने की धारणा ही खो गई है। यहां हम बहुत जल्दी सख्त हो जाते हैं, कठोर हो जाते हैं, लोच खो देते हैं। बदलाहट की क्षमता, रिसेप्टिविटी, ग्राहकता सब खो देते हैं। एक जवान आदमी से भी यहां बात करो तो वह इस तरह बात करता है जैसे उसने अपनी सारी धारणाएं सुनिश्चित कर ली हैं। उसका सब ज्ञान ठहर गया है, उसकी आंखों में इंक्वायरी नहीं मालूम होती, उसके व्यक्तित्व में जिज्ञासा नहीं मालूम होती, खोज नहीं मालूम होती। ऐसा लगता है, उसने पा लिया, जान लिया, सब ठीक है। आगे अब कुछ करने को शेष नहीं रह गया है। प्राण इस तरह बूढ़े हो जाते हैं, व्यक्तित्व इस तरह जराजीर्ण हो जाता है और हजारों वर्षों से इस देश का व्यक्तित्व जरा-जीर्ण है।
युवक क्रांति दल इस जराजीर्ण व्यक्तित्व को तोड़ देना चाहता है। आकांक्षा यह है कि हम भारत की युवा-चेतना को जन्म दे सकें। युवा-चेतना का दूसरा लक्षण है--साहस। भारत से साहस भी खो गया है, सीखना भी खो गया है, जिज्ञासा भी खो गई है, साहस भी खो गया है। हम तो अंधेरे में जाने से भी भयभीत होते हैं; अनजान रास्तों पर जाने से भयभीत होते हैं; सागर में उतरने से भयभीत होते हैं; पहाड़ चढ़ने से भयभीत होते हैं; और ये तो बहुत छोटी चीजें हैं। जो इन अनजान चीजों से भयभीत होता है वह चेतना के अनजान लोकों में, अननोन में कैसे प्रवेश करेगा! वहां तो वह डर कर लौट आएगा, वहीं बैठा रहेगा जहां है। हमने जीवन की कुछ अनजान गहराइयां-ऊंचाइयां हैं, उनकी यात्रा भी बंद कर दी है। हमने कुछ सूत्र याद कर लिए हैं, हम उन्हीं सूत्रों को याद करके चुपचाप बैठे रह जाते हैं।
व्यक्तित्व हमारी एक साहसपूर्ण, एक एडवेंचरस खोज नहीं है, न तो बाहर के जगत में...हिमालय पर चढ़ने के लिए बाहर से यात्री आते रहे, सैंकड़ों यात्री आते रहे, प्रतिवर्ष उनके दल के दल आते रहे। वे मरते रहे, टूटते रहे, पहाड़ों से गिरते रहे, खोते रहे, लेकिन उनके दलों के आने में कमी नहीं हुई, वे आते रहे। हिमालय पर चढ़ना था, एक अज्ञात शिखर बाकी था जहां मनुष्य के पैर नहीं पहुंचे थे। लेकिन हम, हम सोचते रहे कि पागल हैं, क्या जरूरत है एवरेस्ट पर जाने की, क्या प्रयोजन है? क्यों अपनी जान जोखिम में डालते हैं? हम हंसते रहे कि ये पागल हैं, नासमझ हैं, क्यों अपनी जान जोखिम में डालते हैं? हम, जिनका एवरेस्ट है उन्होंने उस पर चढ़ने की कोई तीव्र आकांक्षा प्रकट नहीं की। यह सवाल एवरेस्ट पर चढ़ने का और हिंद महासागर की गहराइयों में उतर जाने का ही नहीं है। इससे हमारे व्यक्तित्व का पता चलता है कि हम अज्ञात के प्रति आतुर नहीं हैं कि उसका पर्दा उघाड़ लेंगे कि उसे हम जानने में लग जाएंगे, फिर जीवन में बहुत कुछ अज्ञात है। पदार्थ का अज्ञात लोक है, साइंस उसे खोजती है, हमने कोई साइंस विकसित नहीं की।
तीन हजार वर्ष के लंबे इतिहास में हमने कोई साइंस विकसित नहीं की। क्यों? एक ही उत्तर हो सकता है कि हमें अज्ञात की पुकार सुनाई नहीं पड़ती। वह जो अननोन है, वह जो चारों तरफ से घेरे हुए है वह हमें बुलाता है, लेकिन हमें सुनाई नहीं पड़ता। हम बहरे हो गए हैं, हमें तो जो ज्ञात है हम उसी के घेरे में बैठ कर जी लेते हैं और समाप्त हो जाते हैं। क्यों हमें अज्ञात की पुकार सुनाई नहीं पड़ती? अज्ञात का आह्वान हमारे प्राणों को आंदोलित नहीं करता, क्यों? सिवाय इसके कि हमारे भीतर करेज, साहस नहीं है क्योंकि अज्ञात में जाने के लिए साहस चाहिए। ज्ञात में, नोन में जीने के लिए किसी साहस की जरूरत नहीं है।
इसीलिए तो भारत कभी भारत के बाहर नहीं गया। भारत के युवकों ने कभी भारत के बाहर जाकर अभियान नहीं किए। उन्होंने कोई लंबी यात्राएं नहीं कीं, उन्होंने पृथ्वी की कोई खोज-बीन नहीं की। वे नहीं गए दूर-दूर उत्तर ध्रुवों तक, न ही दक्षिण ध्रुव तक। न ही आज वे चांद-तारों पर जाने की आकांक्षा से भरे हैं। साहस नहीं है। साहस की कमी होती है तो हम वहीं रहना चाहते हैं जहां परिचित लोग हैं, जहां जाना माना है उसी रास्ते पर चलते हैं, जिस पर बहुत बार चल चुके हैं। क्योंकि अनजान रास्तों पर कांटे हो सकते हैं, गढ्ढे हो सकते हैं, भटकना हो सकता है, अनजान रास्ते पर भूल हो सकती है, अनजान रास्ते पर हम खो सकते हैं। यह सारा भय हमें इतना पकड़ लिया है कि हम ज्ञात पर ही चलते हैं, कोल्हू के बैल की तरह हम चक्कर लगाते रहते हैं। लकीर है जानी हुई, उसी को पीटते रहते हैं।
ऐसे कभी इस देश की आत्मा का उदय हो सकेगा? ऐसे भयभीत होकर कभी इस देश के प्राण जागरूक हो सकेंगे? ऐसे डरे-डरे हम जगत की दौड़ में साथ खड़े हो सकेंगे? जहां चेतनाएं दूर की यात्रा कर रही हों, जहां रोज अज्ञात की पुकार सुनी जाती हो, जहां रोज अज्ञात की दिशा में कदम रखे जाते हों, जहां जीवन के एक-एक रहस्य में प्रवेश करने की सारी चेष्टा की जा रही हो। उन सारे दुनिया के युवकों के मुल्क, युवकों के सामने, युवक-मुल्कों के सामने हमारा बूढ़ा और पुराना देश खड़ा रह सकेगा? हम जी सकेंगे उनके साथ? नहीं, हम नहीं जी सकेंगे। और फिर हमारे नेता कहते हैं कि हमारा युवक सिर्फ नकल करता है। नकल नहीं करेगा तो क्या करेगा? अपनी तो कोई खोज नहीं कर सकता है इसलिए जो खोज करते हैं उनकी नकल करने के सिवाय हमारे पास कुछ भी नहीं बचा है, हमारा पूरा व्यक्तित्व इमीटेशन है, पश्चिम का।
हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं। करेंगे हम, क्योंकि उनके साथ खड़े होने का इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। हमारी तो अपनी कोई खोज नहीं है, हमारा तो अपना कोई उदघाटन नहीं, अन्वेषण नहीं, हमारी तो अपनी कोई शोध नहीं, हमारे तो अपने कोई रास्ते नहीं हैं। हमें उनकी नकल करनी ही पड़ेगी। और ध्यान रहे, एक बार जब हम बाहर के जगत में नकल करना शुरू करते हैं तो भीतर हमारी आत्मा मरनी शुरू हो जाती है। क्यों? क्योंकि आत्मा कभी भी नकल नहीं बन सकती है। आत्मा कार्बनकापी नहीं बन सकती है। आत्मा का अपना व्यक्तित्व है, अनूठा, यूनिक। और जब भी हम बाहर से नकल करना शुरू करते हैं तभी भीतर हमारे प्राण सिकुड़ जाते हैं, तभी भीतर हमारे प्राण मुरझा जाते हैं क्योंकि उन प्राणों की अपनी प्रतिभा थी, अपना द्वार होता है, अपना मार्ग होता है। बाहर से नकल करने वाले लोग भीतर से मर जाते हैं लेकिन हम हमेशा नकल करते रहे हैं।
आप कहेंगे पश्चिम की नकल तो हमने अभी-अभी शुरू की है। पहले? पहले हम अतीत की नकल करते थे, अब हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं, इतना फर्क पड़ा है और कोई फर्क नहीं पड़ा है! पहले हम वह जो बीत चुका था उसकी नकल करते थे। जो हो चुका था, जा चुका था, उस इतिहास की जो पीछे था हमारे, उसकी हम नकल करते थे, क्योंकि कंटेम्प्रेरी जगत का हमें कोई भी पता नहीं था। तो हमारे सामने एक ही जगत था, बीता हुआ और हम थे। तो हम बीते की नकल करते थे। राम की, कृष्ण की, बुद्ध की, महावीर की, हम नकल करते थे। हम अतीत की नकल करके जीते थे। अब हमारे सामने कंटेम्प्रेरी वल्र्ड खुल गया है। अब इतिहास धुंधला मालूम होता है। चारों तरफ फैली हुई दुनिया आज हमें ज्यादा स्पष्ट दिखाई पड़ती है। हम उसकी नकल कर रहे हैं। लेकिन हम हजारों साल से नकल ही कर रहे हैं, चाहे बीते हुए लोगों की और चाहे हमसे दूर जो आस-पास खड़ा हुआ जगत है उसकी। लेकिन हमने अपनी आत्मा को विकसित करने की हिम्मत खो दी है, साहस खो दिया है।
युवक क्रांति दल साहस को पुनरुज्जीवित करना चाहता है बाहर के जगत-जीवन में भी, और अंतस के जगत और जीवन में भी। साहस जुट सके, वह कारा टूट सके, दीवालें टूट सकें और साहस की धारा बह सके भीतर से, उसकी फिकर करना चाहता है। लेकिन हमारी सारी धारणाएं साहस के विरोध में हैं। अगर साहस करना है तो संदेह करना पड़ेगा और अगर साहस नहीं करना है तो विश्वास कर लेना हमेशा अच्छा है। साहस करना है तो डाउट चाहिए और अगर साहस नहीं करना है तो फेथ, बिलीफ, श्रद्धा, विश्वास चाहिए।
हमारा सारा देश विश्वास करने वाला देश है। मान लेना है, हमें जो कहा जाता है उस पर सोचना नहीं है, विचार नहीं करना है, क्योंकि सोचने और विचार करने में फिर खतरा है। हो सकता है, हम मानी हुई मान्यताओं से विपरीत जाना पड़े हमें। हो सकता है, मानी हुई मान्यताएं तोड़नी पड़ें, हो सकता है जो स्वीकृत है, जो पक्ष है हमारा वह गलत सिद्ध हो, यह हम सहने को राजी नहीं हैं, इसलिए उसकी तरफ आंख ही नहीं खोलनी है। शुतुरमुर्ग निकलता है और अगर दुश्मन उसका आ जाए तो वह रेत में मुंह गड़ा कर खड़ा हो जाता है। आंख बंद हो जाती है। रेत में तो शुतुरमुर्ग को दिखाई नहीं पड़ता है कि दुश्मन है, वह खुश हो जाता है, वह मान लेता है जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह नहीं है।
शुतुरमुर्ग को क्षमा किया जा सकता है, आदमी को क्षमा नहीं किया जा सकता। लेकिन भारत शुतुरमुर्ग के तर्क का उपयोग कर रहा है आज तक। वह कहता है, जो चीज नहीं दिखाई पड़ती है, वह नहीं है। इसलिए विश्वास का अंधापन ओढ़ लेता है और जीवन को देखना बंद कर देता है।
जीवन में नग्न सत्य हैं; जिन्हें देखने में पीड़ा हो सकती है, लेकिन वे हैं। चाहे उनकी कितनी ही पीड़ा हो, उन्हें आंख खोल कर देखना पड़ेगा। क्योंकि आंख खोल कर देखने पर ही हम उन्हें रूपांतरित करने में, बदलने में, ट्रांसफर करने में भी सफल हो सकते हैं। आंख बंद कर लेने से हम अंधे हो सकते हैं लेकिन तथ्य बदल नहीं जाते। हम सारे तथ्यों को छिपा कर जी रहे हैं। क्योंकि विश्वास की एक गैर-साहसपूर्ण धारणा हमने पकड़ ली है। संदेह की साहसपूर्ण यात्रा हमारी नहीं है। इस वजह से कि साहस कम हो गया है, अकेले होने की हिम्मत हमारी कम हो गई है।
और ध्यान रहे, युवक का अनिवार्य लक्षण है, अकेले होने की हिम्मत, दि करेज टु स्टैंड अलोन। वह युवक होने का एक अनिवार्य लक्षण है। हम भीड़ के साथ खड़े हो सकते हैं। जहां सारे लोग जाते हैं वहां हम जा सकते हैं। हम वहां नहीं जा सकते जहां आदमी को अकेला जाना पड़ता है। नई जगह तो आदमी को सदा अकेला जाना पड़ता है। किसी एक व्यक्ति को अकेले चलने की हिम्मत करनी पड़ती है। क्योंकि भीड़ तो पहले प्रतीक्षा करेगी कि पता नहीं, कि रास्ता कैसा है। अकेले आदमी को हिम्मत जुटानी पड़ती है। हमने अकेले होने की हिम्मत कब खो दी, पता नहीं, हम अकेले हो ही नहीं सकते। हमें भीड़ चाहिए हमेशा साथ, तो ही हम खड़े हो सकते हैं। फिर हम युवा नहीं रह जाते। फिर हम युवा नहीं रह जाते। फिर वह जो यंग माइंड है वह हममें पैदा नहीं हो पाता।
युवक क्रांति दल चाहता है, अकेले होने का साहस--एक-एक युवक में पैदा होना चाहिए। जिस दिन एक-एक युवक अकेला खड़े होने की हिम्मत करता है, उस दिन पहली बार उसकी आत्मा प्रकट होनी शुरू होती है, उसकी प्रतिभा प्रकट होनी शुरू होती है। जब वह कहता है कि चाहे सारी दुनिया यह कहती हो लेकिन जब तक मेरा विवेक नहीं मानता, मैं अकेला खड़ा रहूंगा। मैं सारी दुनिया के प्रवाह के विपरीत तैरूंगा। नदी इस तरफ जाती है पूरब--मुझे नहीं प्रतीत होता, मुझे नहीं तर्क कहता, नहीं विवेक कहता कि पूरब जाऊं! मैं पश्चिम की तरफ तैरूंगा टूट जाऊंगा, नदी की धार में; लेकिन कोई फिकर नहीं, धार के साथ तभी तैरूंगा जब मेरा विवेक मेरे साथ होगा। जिस दिन कोई व्यक्ति जीवन की धार के विपरीत अपने विवेक के अनुकूल तैरने की कोशिश करता है, पहली बार उसके जीवन में कोई चुनौती आती है, वह चैलेंज! वह संघर्ष आता है, वह स्ट्रगल आती है, जिससे संघर्ष और चुनौती में से गुजर कर उसकी आत्मा निखरती है, साफ होती है। आग से गुजर कर पहली दफे उसकी आत्मा कुंदन बनती है, स्वर्ण बनती है; लेकिन वह हमने खो दिया। अकेले होने की हमने हिम्मत खो दी है।
मैंने सुना है, एक स्कूल में एक पादरी कुछ बच्चों को समझाने गया था। वह उन्हें करेज, माॅरल-करेज, नैतिक साहस के बाबत समझाता था। उस पादरी से एक बच्चे ने पूछा कि आप कोई छोटी कहानी से समझा दें तो शायद हमें समझ में आ जाए। तो उस पादरी ने कहा कि तुम जैसे तीस बच्चे अगर पहाड़ पर घूमने गए हों, दिन भर के थके-मांदे वापस लौटे हों, ठंडी हो रात, थकान हो, हाथ-पैर टूटते हों, बिस्तर निमंत्रण देता हो, बढ़िया बिस्तर हों, अच्छे कंबल हों, उनमें सोने का मन होता हो, उनतीस लड़के शीघ्र जाकर अपने-अपने बिस्तरों में सो गए हैं, सर्दी की रात में। लेकिन एक बच्चा एक कोने में बैठ कर घुटने टेक कर अपनी रात्रि की अंतिम प्रार्थना कर रहा है। तो उस पादरी ने कहाः उस बच्चे को मैं कहता हूं कि उसमें साहस है। जब कि उनतीस बच्चे सोने के लिए चले गए हैं, रात सर्द है, दिन भर का थका हुआ है। उनतीस बच्चों का टेंपटेशन है। भीड़ के साथ होने की सुविधा है। कोई कुछ कहेगा नहीं, कुछ कहने की बात नहीं है। लेकिन नहीं, वह अपनी रात्रि की अंतिम प्रार्थना पूरी करता है उस सर्द रात में थके हुए। इसे मैं साहस कहता हूंः नैतिक साहस, अकेले होने का साहस, उस पादरी ने कहा।
महीने भर बाद वह फिर आया उस स्कूल में और उसने कहा कि पिछली बार मैंने नैतिक साहस की बात कही थी और एक कहानी सुनाई थी। क्या तुम भी कोई बता सकते हो, नैतिक साहस की कोई कहानी सुना कर। एक बच्चा खड़ा हुआ। और उसने कहा कि मैंने बहुत सोचा, और मुझे याद आया कि उससे भी बड़े नैतिक साहस की एक घटना हो सकती है। उस पादरी ने कहा, खुशी से तुम कहो। उस बच्चे ने कहा, आप जैसे तीस पादरी पहाड़ पर गए हुए हैं। दिन भर के थके-मांदे, भूखे-प्यासे, रात सर्द है, वापस लौटे हैं। तीसों पादरी हैं, दिन भर की थकान, ठंडी रात, आधी रात। उनतीस पादरी प्रार्थना करने बैठ गए हैं हाथ जोड़ कर और एक पादरी बिस्तर पर जाकर सो गया है। उस बच्चे ने कहा कि यह पहले करेज से ज्यादा बड़ा करेज है, ज्यादा बड़ा साहस है! क्योंकि हो सकता है कि पहला बच्चा यह सोच रहा हो कि मैं धार्मिक हूं और ये सब नास्तिक, अधार्मिक सो रहे हैं--सो जाओ, नरक में सड़ोगे, यह सोच सकता है वह बच्चा।
अक्सर धार्मिक और प्रार्थना करने वाले लोग इसी भाषा में सोचते हैं कि दूसरों को कैसे नरक में सड़वा दें। सारा चिंतन सारा...जितना वह बेचारे प्रार्थना करते हैं, उपवास करते हैं, उतना ही क्रोध दुनिया के ऊपर उनका बढ़ता चला जाता है। वे कहते हैं, एक-एक को नरक में डलवा देंगे। सड़क पर जिसको भी देखते हैं कि कुछ अच्छे चमकदार और रंगीन, खूबसूरत कपड़े पहने हुए हैं, मन ही में सोचते हैं, नरक में सड़ोगे। जिसको थोड़ा मुस्कुराते देखते हैं, सोचते हैं सड़ोगे, सड़ोगे, नरक में सड़ोगे। वह अपनी उदास सूरत का बदला तो लेंगे किसी से। वह अपनी गमगीन और रोती हुई आत्मा का बदला तो लेंगे किसी से।
तो हो सकता है, उस बच्चे ने कहा कि वह बच्चा यह मजा ले रहा हो कि कोई फिकर नहीं, आज मैं अकेला हूं तो कोई फिकर नहीं है, जब नरक की अग्नि में सड़ोगे तो मैं अकेला खड़ा देखूंगा, उनतीस सड़ते होओगे। इसलिए वह साहस बहुत बड़ा नहीं भी हो सकता है, लेकिन दूसरा साहस उसने कहा, बहुत बड़ा है। उनतीस पादरी जब स्वर्ग जाने की व्यवस्था किए ले रहे हैं, तब एक बेचारा नरक जाने की तैयारी कर रहा है। तब उसे कोई कंसोलेशन भी नहीं है, कोई सांत्वना भी नहीं है कि इनको नरक भेज दूंगा। तब उसे कोई सांत्वना नहीं है, तब टेंपटेशन बड़ा है कि उनतीस। तब उसे यह भी पता है कि यह उनतीस दुनिया में जाकर कल सुबह क्या कहेंगे। हो सकता है, रात भी न सो पाए।
धार्मिक आदमी बड़े खतरनाक होते हैं। हो सकता है, आधी रात में पड़ोसी को जाग कर कह आएं कि पता है, उस पादरी की अब फिकर मत करना, वह आदमी भ्रष्ट हो गया है, उसने आज प्रार्थना नहीं की है। लेकिन कुछ भी हो, चाहे पहला साहस रहा हो चाहे दूसरा, लेकिन साहस का अर्थ हमेशा ‘अकेले’ होने का साहस है।
क्या आप युवक हैं? अगर युवक हैं तो जीवन में अकेले खड़े होने की हिम्मत जुटानी पड़ती है और ध्यान रहे, अकेले खड़े होने का अर्थ होता है, विवेक को जगाना। क्योंकि जो विवेक को न जगा सके वह अकेला खड़ा नहीं हो सकता है। इसलिए तीसरी बात युवक क्रांति दल चाहता है इस देश में, व्यक्ति-व्यक्ति के भीतर विवेक, बोध, समझ, अंडरस्टैंडिंग को जगाने की कोशिश। क्योंकि अकेला आदमी तभी अकेला हो सकता है, चाहे दुनिया उसके साथ न हो, उसके पास विवेक साथ है। उसकी आंख में स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है कि जो वह कर रहा है, वह ठीक है। उसका तर्क उसके प्राण उससे कह रहे हैं कि वह जो कर रहा है, वह ठीक है, चाहे सारी दुनिया विपरीत हो।
जीसस को जिस दिन सूली पर लटकाया होगा, जीसस जवान आदमी रहा होगा। ऐसे उम्र से भी वह जवान ही थे, तैंतीस वर्ष ही उम्र थी लेकिन वे सत्तर वर्ष के भी होते तो कोई फर्क नहीं पड़ता था। जीसस युवा आदमी था। सारी दुनिया उसके विपरीत थी। एक लाख आदमी इकट्ठे थे उसे सूली पर लटकाने को। वह चाहता तो माफी मांग सकता था, माफी उसे जरूर मिल जाती। वह चाहता तो कह सकता था कि मुझसे गलती हो गई, यह मैंने क्या पागलपन कर दिया। वह मुक्त हो जाता। एक गांव में बैठ कर बढ़ईगिरी का काम करता, उसकी शादी होती, बच्चे पैदा होते और मजे से मर जाता। लेकिन नहीं, उस आदमी ने अकेले खड़े होने की हिम्मत की, सूली पर भी।
लेकिन वह अकेला खड़ा होकर किसी को नरक नहीं भेज रहा है, अकेला खड़ा होकर किसी के सड़ाने का आयोजन नहीं कर रहा है। किसी के प्रति क्रोध नहीं है उसके मन में। अकेला खड़ा है अपने विवेक के कारण, किसी के प्रति क्रोध के कारण नहीं। सूली पर लटकते हुए उसने अंतिम प्रार्थना की और कहा, हे परमात्मा! इन सब लोगों को माफ कर देना क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। लेकिन उसे पता है कि वह क्या कर रहा है। उसे दिखाई पड़ रहा है कि वह क्या कर रहा है, उसे ज्ञात है कि वह जो कर रहा है, ठीक है। क्योंकि पूरे प्राणों से सोच कर, विचार कर, अनुभव से, उसकी पूरी बुद्धि की सलाह से, उसने यह किया है, वह जानता है!
और जिस दिन मेरा विवेक मेरे साथ होता है, तुम्हारा विवेक तुम्हारे साथ होता है, उस दिन सारी दुनिया दो कौड़ी की हो जाती है, उस दिन तुम अकेले खड़े हो सकते हो। विवेक की शक्ति इतनी बड़ी है कि सारी दुनिया की शक्ति क्षीण हो जाती है। इसलिए तीसरी बात युवक क्रांति दल चाहता है, विवेक कैसे विकसित हो, बुद्धिमत्ता कैसे विकसित हो।
ज्ञान विकसित हो जाना एक बात है और बुद्धिमत्ता विकसित होनी बिलकुल दूसरी बात है। नाॅलेज आना एक बात है वि.जडम आना बिलकुल दूसरी बात है। नाॅलेज और ज्ञान तो स्कूल, काॅलेज और विद्यालय दे देते हैं लेकिन वि.जडम कौन देगा? सूचनाएं, इनफर्मेशन तो काॅलेज और विश्वविद्यालय दे देते हैं युवकों को, और उनको दे-दे कर जवानी में ही उनको बूढ़ा कर देते हैं। क्योंकि जितना उनको भ्रम पैदा हो जाता है कि हम जानते हैं, उतने ही जानने की जिज्ञासा कम हो जाती है। विश्वविद्यालय के मंदिर से निकलते वक्त युवक को ऐसा नहीं लगता कि वह जानने की एक नई यात्रा पर जा रहा है। अब उसे ऐसा लगता है, अब जानने का काम हुआ बंद, यह सर्टिफिकेट मिल गया, अब बात हो गई समाप्त, अब मुझे जानना नहीं है।
ठीक विश्वविद्यालय तो तब होगा जब विश्वविद्यालय हमें विद्या का मंदिर नहीं मालूम पड़ेगा, विद्या के मंदिर की सिर्फ सीढ़ियां मालूम पड़ेगा। विश्वविद्यालय वहां छोड़ता है, जहां सीढ़ियां समाप्त होती हैं और असली ज्ञान का मंदिर शुरू होता है। लेकिन उस ज्ञान का नाम नाॅलेज नहीं है। उस ज्ञान का नाम वि.जडम है, उसका नाम है समझ, उसका नाम है बुद्धिमत्ता।
युवक क्रांति दल, चैथी बातः बुद्धिमत्ता, वि.जडम पैदा करने के प्रयोग करना चाहता है। और इसलिए भी कि सारे जगत में ही...हिंदुस्तान में तो, क्योंकि अभी तो काम यहां है, युवक के पास, सारी बुद्धिमत्ता ऐसा लगता है, पैदा ही नहीं हो पा रही है। वह जो भी कर रहा है, बुद्धिहीन है। उसका सारा उपक्रम बुद्धिहीन है, उसका विद्रोह बुद्धिहीन है, उसकी बगावत बुद्धिहीन है। मैं बगावत का विरोधी नहीं हूं। मुझसे ज्यादा बगावत का प्रेमी खोजना मुश्किल है। मैं विद्रोह का विरोधी नहीं हूं। मैं तो विद्रोह को धार्मिक कृत्य मानता हूं। रिबेलियन को मनुष्य का अधिकार मानता हूं। लेकिन जब विद्रोह बुद्धिहीन हो जाता है तो विद्रोह से किसी का कोई हित नहीं होता है सिवाय अहित के। और जब विद्रोह अर्थहीन होता है और जब विद्रोह एक विवेकपूर्ण कृत्य नहीं होता, तो वह दूसरे को तो नुकसान कम पहुंचाता है, विद्रोही को ही नष्ट कर डालता है।
हिंदुस्तान का युवक एक विद्रोह की गति पर जा रहा है, एक दिशा पर जहां बुद्धिमत्ता बिलकुल नहीं है। युवक क्रांति दल एक बुद्धिमत्ता जगाने की चेष्टा करना चाहता है। बुद्धिमत्ता जगाने के उपाय हैं। बुद्धिमत्ता जगाने की विधियां हैं। जिस तरह ज्ञान पैदा होता है--सूचनाएं इकट्ठी करने से, जिस तरह ज्ञान इकट्ठा होता है--अध्ययन से, मनन से, चिंतन से। उसी तरह बुद्धिमत्ता उत्पन्न होती है; ध्यान से, मेडिटेशन से। युवक क्रांति दल ध्यान का एक आंदोलन चलाना चाहता है पूरे भारत में। एक-एक युवक के पास ध्यान की क्षमता होनी चाहिए। एक-एक युवक के पास मेडिटेशन की विधि होनी चाहिए। वह जब चाहे तब अपने गहरे से गहरे प्राणों में प्रवेश कर सके। वह जब चाहे तब अंतर के द्वार खोल सके और अंतर के मंदिर में प्रविष्ट हो सके। जिस दिन कोई व्यक्ति अपनी आत्मा के जितने निकट पहुंच जाता है उतना ही बुद्धिमान हो जाता है। बुद्धिमत्ता का संबंध, बुद्धिमत्ता का संबंध हैः कौन व्यक्ति अपनी आत्मा के कितने निकट है उतना ही वाइज, उतना ही वि.जडम उसके पास होती है। जो आदमी अपनी आत्मा से जितना दूर है, उतना ही कम बुद्धिमान होता है।
बुद्धिमत्ता आती है ध्यान से।
जैसे ज्ञान नालेज आता है अध्ययन से, मनन से, शिक्षण से; उसी तरह बुद्धिमत्ता आती है ध्यान से। इस देश के युवक को ध्यान की प्रक्रिया में ले जाने का एक बड़ा मूवमेंट, ‘मूवमेंट फाॅर मेडिटेशन’...सारे देश के कोने-कोने में बच्चे-बच्चे तक ध्यान की खबर पहुंचानी है और ध्यान की प्रक्रिया पहुंचानी है। वह युवक क्रांति दल करना चाहता है।
ध्यान व्यक्ति को उपलब्ध हो तो व्यक्ति शांत हो जाता है और जितना शांत व्यक्ति होगा उतने सुंदर समाज के सृजन का घटक बन जाता है। जितना शांत व्यक्ति होगा, उतने सत्य, उतने साहस, उतने अकेले होने की हिम्मत, उतने अज्ञात की तरफ जाने की कामना और उतना जोखिम उठाने की व्यक्तित्व में मजबूती आ जाती है। जितना शांत व्यक्ति होगा उतना कम भयभीत होता है। जितना शांत व्यक्ति होगा उतना स्वस्थ होता है। जितना शांत व्यक्ति होगा उतना जीवन को झेलने और जीवन का सामना करने की शक्ति उसके पास होती है।
हमारा युवक जीवन के सामने बैंकरप्ट, दिवालिया की तरह खड़ा हो जाता है। उसके पास कुछ भी नहीं है। कुछ सर्टिफिकेट हैं, कागज के कुछ ढेर हैं। उनका वह पुलिंदा बांध कर जिंदगी के सामने खड़ा हो जाता है। उसके पास भीतर और कुछ भी नहीं है। यह बड़ी दयनीय अवस्था है। यह बहुत दुखद है और फिर इस स्थिति में फ्रस्ट्रेशन पैदा होता है, विषाद पैदा होता है, तनाव पैदा होता है, क्रोध पैदा होता है। और इस क्रोध में वह समाज को तोड़ने में लग जाता है, चीजें नष्ट करने में लग जाता है।
आज सारे मुल्क का बच्चा-बच्चा क्रोध से भरा हुआ है। क्रोध में वह कुर्सियां तोड़ रहा है, फर्नीचर तोड़ रहा है, बस जला रहा है। नेता हैं मुल्क के, वे कहते हैं कुर्सियां मत तोड़ो, बस मत जलाओ, मकान मत मिटाओ, खिड़कियां मत तोड़ो। लेकिन नेता भी जानते हैं कि वे भी नेता कुर्सियां तोड़ कर, बसें जला कर और कांच फोड़ कर हो गए हैं। उनको पक्का पता है, उनकी सारी नेतागिरी इसी तरह की तोड़-फोड़ पर निर्भर, खड़ी हो गई है। यह बच्चे भी जानते हैं कि नेता होने की तरकीब यही है कि कुर्सियां तोड़ो, मकान तोड़ो, आग लगाओ।
इसलिए वे पुराने नेता जो कल यही करते रहे थे, आज ये ही दूसरे को समझाएंगे। वह समझ में आने वाली बात नहीं है। फिर उन नेताओं को यह भी पता नहीं है कि कुर्सियां तोड़ी जा रही हैं। यह सिर्फ सिंबालिक है। कुर्सियों से बच्चों को क्या मतलब हो सकता है? किस आदमी को कुर्सी तोड़ने से मतलब हो सकता है! बस जलाने से किसको मतलब हो सकता है? बस से किसकी दुश्मनी है? ऐसा पागल आदमी खोजना मुश्किल है जिसकी बस से और दुश्मनी हो, कि कांच तोड़ने में कुछ रस आता हो। नहीं, यह सवाल नहीं है। यह सवाल ही नहीं है। यह बिलकुल असंगत है। इससे कोई संबंध नहीं है। युवक है भीतर अशांत, पीड़ित और परेशान। और परेशान आदमी कुछ भी चीज तोड़ लेता है तो थोड़ी सी राहत मिलती है। थोड़ा रिलैक्सेशन मिलता है। कुछ भी तोड़ ले।
एक मनोवैज्ञानिक के पास एक बीमार को लाया गया था। वह एक दफ्तर में नौकर था। उस दफ्तर में उसका मालिक उसे कभी बुरा शब्द बोलता, कभी अपमानित कर देता। मालिक के खिलाफ वह कुछ कर नहीं सकता था। लेकिन भीतर क्रोध तो आता था। क्रोध आता था तो घर जाकर पत्नी पर टूट पड़ता था। क्रोध आता था तो कभी गुस्से में अपनी ही चीजें तोड़ लेता था। लेकिन फिर खयाल में आता था, यह क्या पागलपन है! फिर क्रोध बढ़ता चला गया। फिर उसके मन में ऐसा होने लगा कि होगा, जो कुछ होगा, एक दिन जूता निकाल कर मालिक की सेवा कर दी जाए। हाथ उसके जूते पर जाने लगे तो वह बहुत घबड़ाया कि यह तो बहुत खतरनाक बात हुई जा रही है। अगर जूता मैंने मार दिया तो मुश्किल में पड़ जाऊंगा। फिर वह जूता घर छोड़ कर आने लगा। क्योंकि किसी भी दिन खतरा हो सकता था। लेकिन जूता घर छोड़ कर आने से क्या संबंध था! वह जूता तो केवल प्रतीक था। बात और तरह होने लगी। वह टेबल से डंडे उठाने लगा, वह स्याही की दवात उठा कर फेंकने का खयाल करने लगा। तब उसे घबड़ाहट आई और उसने घर जाकर अपने मित्रों को कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। बस कुछ भी मिल जाए, तो मैं मालिक को मारना चाहता हूं।
वह एक मनोवैज्ञानिक के पास उसे ले गया। मनोवैज्ञानिक ने कहाः कुछ मत करो। मालिक की एक तस्वीर घर में बना लो और रोज सुबह पांच जूते बिलकुल रिलिजिअसली तस्वीर को मारो। बिलकुल इसमें भूल-चूक न हो। जैसे कि पुजारी पूजा करता है और माला फेरने वाले माला फेरते हैं, ऐसा रिलिजिअसली। इसको बिलकुल पांच जूते मारो फिर दफ्तर जाओ। दफ्तर से लौट कर पहला काम, इसको