28/06/2023
क्या हैं मलमास या पुरुषोत्तम में अंतर पूरा श्रवण करे
वेदों में सूर्य चन्द्र आदि को पुरुष और उषा अमावस्था आदि को नारी मानकर उनका जो विशद वर्णन किया गया है उसका वह रूपकत्व स्पष्ट है किन्तु ज्योतिष और पुराणों में अनेक निराकार कालमानों को सचमुच देहधारी मानव मानकर उनका अस्वाभाविक मिथ्या वर्णन किया गया है। मलमास के विषय में बृहन्नारदीय पुराण में विस्तार से लिखा है कि एक बार सारी जनता कहने लगी कि मासों के केशव, माधव आदि देव स्वामी हैं परन्तु अधिक मास अनाथ, असहाय, अपूज्य, निन्दित, अस्पृश्य और सब शुभ कर्मों में तिरस्कृत है क्योंकि इसमें सूर्य की संक्रान्ति नहीं लगती। यह सुनकर वह आत्महत्या के लिए उद्यत हो गया किन्तु बाद में कुछ सोच कर वैकुण्ठ चला गया और वहाँ विष्णु भगवान् के सामने दण्डवत् गिरकर विलाप करते हुए कहने लगा कि ये दीनबन्धो! आप द्रोपदी की भाँति मुझे शरणागत की रक्षा करें। हे नाथ! ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक क्षण, घटी, मुहूर्त, पक्ष, मास और दिन आदि का कोई न कोई देव स्वामी है अतः वे सब सुप्रसन्न और निर्भय हैं पर मैं निराश्रय हूँ और सब शुभ कर्मों से बहिष्कृत हूँ, अतः मरने जा रहा हूँ। ऐसा कहते-कहते वह मूर्च्छित हो गया।
"तमूचुः सकला लोका असहायं जुगुप्सितम् ।
अनहों मलमासोऽयं रविसंक्रान्तिवर्जितः ॥
अस्पृश्यो मलरूपत्वात् शुभे कर्मणि गर्हितः ।
मुमूर्षुरभवत्तस्मात् चिन्ताग्रस्तो हतप्रभः ॥
प्राप्तो वैकुण्ठभवनं दण्डवत् पतितो भुवि ।
क्षणा लवमुहूर्ताद्या मोदन्ते निर्भयाः सदा ॥
न मे नाम न मे स्वामी न च कश्चिन्ममाश्रयः ।
मरिष्ये मरिष्येऽहं सत्कर्मभ्यो निराकृतः ॥"
विष्णु के आदेश से गरुड़ ने अपने पंख के वायु से मलमास की मूर्छा दूर कर दी तो विष्णु बोले कि बेटा तुम मेरे साथ मेरे स्वामी और आराध्य देव कृष्ण भगवान् के उस गोलोक में चलो जो वैकुण्ठ तथा शिवलोक के ऊपर है और जहाँ रामेश्वर मुरलीधर कृष्ण रासमण्डल में गोपियों के बीच बैठे हैं। दोनों चले किन्तु विष्णु ने ज्योति के धाम कृष्ण को दूर से देखा तो उनके नेत्र बन्द हो गये। किसी प्रकार मलमास को पीछे कर धीरे-धीरे आगे बढ़े तो गोपियों के बीच में रत्न के सिंहासन पर विराजमान मनोहर कृष्ण को भूमि पर लेटकर प्रणाम करने लगे और बाद में हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे। जो प्रातः काल इस स्तुति का पाठ करता है उसके छोटे-बड़े सब पाप समाप्त हो जाते हैं और दुःस्वप्न शुभ फल देने लगते हैं।
"वीजयामासपक्षेण मासं तं मूर्च्छितं खगः ।
वत्सागच्छ मया सार्धं गोलोकं योगिदुर्लभम् ॥
बैकुण्ठः शिवलोकश्च यस्याधस्तत्र संस्थितः ।
गोपिकावृन्दमध्यस्थं रामेशं मुरलीधरम् ॥
ददर्श दूरतो विष्णुज्यौतिषम मनोहरम्।
तत्तेजपिहिताक्षोऽसौ बद्धांजलिपुरःसरः ॥
इति विष्णुकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
तस्य पापानि नश्यन्ति दुःस्वप्नः सत्फलप्रदः ॥"
उसके बाद विष्णु, श्रीकृष्ण के चरणों के पास बैठ गये और उनके पूछने पर बोले कि यह रोता हुआ मनुष्य मल- मास है। संवत्सरों, मासों आदि सारे कालमानों से तिरस्कृत है, शुभ कर्मों में निषिद्ध है और मरना चाहता है अतः कृपया इसकी । रक्षा करें। ऐसी प्रार्थना करने के बाद विष्णु हाथ जोड़कर खड़े होकर श्रीकृष्ण का मुखारविन्द निहारने लगे। श्रीकृष्ण ने कहा कि तुमने मलमास को यहाँ लाकर उसकी जो भलाई की है उससे लोक में यश पाओगे। मैं तुम्हारे कारण आज इसे अपना पुरुषोत्तम नाम और सब गुण दे रहा हूँ। अब इसके नाम से संसार पवित्र हो जायेगा और इसके पूजकों के पाप, कष्ट, दरिद्रता आदि की समाप्ति हो जायेगी। अब यह मास मेरा हो गया। जैसे वृक्ष का एक बीज बोने पर करोड़ों गुना हो जाता है वैसे ही इसमें दिये दान कोटिगुना होकर मिलेंगे।
"उपविष्टस्ततोविष्णुः श्रीकृष्णचरणाम्बुजे ।
उवाचायमनर्होऽस्ति मलिनः शुभकर्मणि ॥
पुरस्तस्थौ ततस्तस्य निरीक्षन् वदनाम्बुजम्॥
अस्मै समर्पिताः सर्वे ये गुण मयि संस्थिताः ॥
एतन्नाम्ना जगत् सर्वं पवित्रं च भविष्यति ।
पूजकानामयं पापदुःखदारिद्रयखण्डनः ।
क्षेत्रनिःक्षिप्तबीजानि वर्धन्ते कोटिशो यथा ।
तथा कोटिगुणं पुण्यं कृतं मत्पुरुषोत्तमे ॥"
यह संभव है कि काम, लोभ आदि से होन, वायुभक्षी, निराहार तपस्वी मेरे लोक में न पहुँचें पर पुरुषोत्तम के पूजक तो अनायास पहुँचते हैं। बड़े-बड़े याज्ञिक, दानी, धर्मात्मा मुक्त न होकर स्वर्ग से लौट आते हैं पर इसके पूजक नहीं।पुरुषोत्तम के भक्तों को अपराध कभी लगता ही नहीं। मैं अपने भक्त की कामना की पूर्ति में विलम्ब कर सकता हूँ पर उसके भक्तों के काम में नहीं। जो मूढ़ इसमें दान नहीं करते वे भाग्यहीन हैं। उनके लिए शान्ति, खरगोश को सींग के समान है। वे जीवन भर कष्टाग्नि में जलते हैं और मरने पर कुम्भीपाक में जाते हैं जो नारियाँ इसमें स्नान-दान करती हैं उनकी कामना मैं पूर्ण करता हूँ और जो नहीं करतीं उन्हें सम्पत्ति, पुत्र और स्वामी आदि का सुख नहीं देता। बारह सहस्र वर्षों के गंगास्नान के फल और आगमोक्त सारे कर्मों के फल एक बार के पुरुषोत्तम स्नान से प्राप्त हो जाते हैं। सच पूछिए तो मैं कई अरब कल्पों में भी इसके गुणों का वर्णन नहीं कर पाऊँगा।
" न हि गत्वा निवर्तन्ते पुरुषोत्तमपूजकाः ।
पुरुषोत्तमभक्तानां नापराधः कदाचन ॥
जायते दुर्भगा दुष्टा अस्मिन् दानादिवर्जिताः।
तद्भक्तकामनादाने न विलम्बे कदाचन ॥
नाचरिष्यन्ति ये धर्म कुम्भीपाके पतन्ति ते । द्वादशाब्दसहस्त्रेषु गंगास्नानेन यत्फलम् ॥
आगोनैश्च यत्पुण्यं समानेन तत्समम्।
नाहं वक्तुं समर्थोस्मि कल्पकोटिशतैः फलम् ॥"
पाण्डवों ने जो अनेक दुख भोगे उसका कारण यह था कि वन में रहते समय उन्होंने अधिमास की पूजा नहीं की। द्रौपदी पूर्व जन्म में एक सुकटाक्षी, सुन्दरी कन्या थी और विवाह के पूर्व ही माता पिता से हीन हो गयी। उसे पति नहीं मिल रहा था। दुर्वासा ने कहा कि हे सुन्दरी! अधिमास में एक बार किसी तीर्थ में नहा लेने से सारे पाप भस्म हो जाते हैं और सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। अन्य व्रतों, यज्ञ, दानों, पवित्र मासों, कालों, पर्वों और वेदशास्त्र में कथित साधनों में इतना पुनीत अन्य कोई नहीं है। गंगा गोदावरी में बारह सहस्र वर्षों तक लगातार स्नान करने से जो पुण्य मिलता है वह पुरुषोत्तम मास में केवल एक बार कहीं नहा लेने से प्राप्त हो जाता है इसलिए तुम पतिप्राप्ति के लिए यही करो। कन्या बोली कि महात्मन्! शंकर, पार्वती, गणेश आदि देव तथा कार्तिक-माप आदि पुनीत मास जो नहीं दे पाते वह यह लोकनिन्दित मलिन मास कैसे दे देता है? आपका यह कथन मुझे रुचता नहीं। यह सुन कर कुपित दुर्वासा बोले कि इस कुशंका का दुष्फल तुम अग्रिम जन्म में भोगोगी। इसके बाद कुमारी ने ग्रीष्मऋतु में पंचाग्नि का सेवन करते हुए तथा शीतकाल में पानी में बैठ कर कई सहस्र वर्षों तक घोर तप करते हुए शिव की आराधना की शिव प्रकट हुए तो उसने पाँच बार 'पतिं देहि' कहा। शिव बोले कि तुम्हें पाँच पति मिलेंगे। कन्या घबराने लगी तो शिव ने बताया कि तुमने दुर्वासा के सामने मलमास की उपेक्षा की थी। उसी का यह फल है। दुःशासन ने इसी कारण सभा में उसके केश खींचे और कटुवचन कहे। ब्रह्मा ने वेदों में कथित सब शुभ साधनों को एक और और पुरुषोत्तम मास को दूसरी ओर रखा तो वेदोक्त साधन ऊपर टैंग गये।
" पुरुषोत्तममासस्य यस्त्वयानादरः कृतः ।
तस्मात् पञ्च भविष्यन्ति पतयस्तव सुन्दरि ॥
यो वै निन्दति तं मासं यात्यसौ घोररौरवम् ।
वयं सर्वेऽपि गीर्वाणाः पुरुषोत्तमसेविनः ॥
तोलयामास लोकेश एकतः पुरुषोत्तमम्।
लघुन्यन्यानि जातानि गुरुपुरुषोः ॥"