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दर्शन कीजिए उस शिला का जिससे अयोध्या में रामलला और माता सीता के विग्रह का होगा निर्माण!दरअसल, नेपाल के शालिग्रामी नदी जि...
27/01/2023

दर्शन कीजिए उस शिला का जिससे अयोध्या में रामलला और माता सीता के विग्रह का होगा निर्माण!

दरअसल, नेपाल के शालिग्रामी नदी जिसके भारत में प्रवेश करते ही नारायणी नदी और सरकारी अभिलेखों में बूढ़ी गण्डक नदी के नाम से जानते हैं।

चूँकि, शास्त्रीय नाम शालिग्रामी नदी होने से जिस प्रकार नर्मदा नदी के पत्थर स्वतः नर्मदेश्वर महादेव कहलाते हैं।जिनकी प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती उसी प्रकार शालिग्रामी नदी के पत्थर भगवान शालिग्राम के रूप में पूजे जाते हैं।

प्राप्त जानकारी के अनुसार, शालिग्रामी नदी से प्राप्त 6 करोड़ वर्ष पुराने 2 शालीग्राम पत्थर को अयोध्या में निर्माण हो रहें श्री राम जन्मभूमि मंदिर में वहाँ पर भगवान श्री राम के बाल्य स्वरूप की मूर्ति और माता सीता की मूर्ति बनाने के लिए तय किया गया है।

बता दें कि शालिग्राम मिलने वाली एक मात्र नदी काली गण्डकी अर्थात् शालिग्रामी नदी है, यह नदी दामोदर कुण्ड से निकलकर माँ गंगा में सोनपुर बिहार में मिलती है। नदी के किनारे से लिया गया यह शिला खंड एक 26 टन का और दूसरा 14 टन का बताया जा रहा है।

रिपोर्ट के अनुसार, पवित्र शिला निकालने से पहले नदी में क्षमा पूजा की गई और विशेष पूजा के साथ इसे विग्रह के निर्माण के लिए ले जाया गया।

इस शिला का 26-01-2023 गुरुवार के दिन गलेश्वर महादेव मन्दिर में रूद्राभिषेक किया गया। वहीं सोमवार 30 जनवरी को अयोध्या के लिए प्रस्थान किया जाएगा।

01/01/2023

आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!

स्वामी राम (रामतीर्थ)-स्वामी राम का जन्म 1873 में एक पंजाबी ब्राह्मण परिवार में हुआ, विवेकानंद के बाद दूसरे व्यक्ति थे (...
20/12/2022

स्वामी राम (रामतीर्थ)-

स्वामी राम का जन्म 1873 में एक पंजाबी ब्राह्मण परिवार में हुआ, विवेकानंद के बाद दूसरे व्यक्ति थे (तीसरे परमहंस योगानंद थे) जिन्होनें विश्वभर में वेदांत का प्रचार किया।

लाहौर में बतौर गणित प्रोफेसर कार्यरत रहे और इसके कुछ ही महीनों बाद, सन 1897 में, लाहौर विश्वविधालय में स्वामी विवेकानंद का आना हुआ और विवेकानंद से इनकी भेंट हुई और इस भेंट का परिणाम यह हुआ कि ये संन्यासी हो गए। 1899 में यह घटना घटी, पत्नी व बच्चों के लिए इतनी कम उम्र में संन्यास का यह निर्णय बड़ा सदमा रहा होगा।

कहाँ कालेज प्रोफेसर का सम्मान व सुविधापूर्ण जीवन और कहाँ ऐसा कठोर जीवन जिसमें इन्होंने शरीर पर वस्त्रों के अलावा तमाम वस्तुओं व पैसे का त्याग कर दिया था, यह करीबी ही नहीं किसी अनजान के लिए भी सुनने में बड़ा घबराहट पैदा करने वाला था। और दुर्भाग्यवश हुआ भी यही, क्योंकि इस दिन के बाद यह युवा सन्यासी केवल छह वर्ष ही जीवित रहा।

लेकिन ये छह वर्ष किसी आम व्यक्ति के छह हजार जीवन से भी ज्यादा क्रांतिकारी थे। इन छह वर्षों में स्वामी राम जापान- अमेरीका समेत विश्व भर में वेदांत सिखाते रहे, इतनी कम उम्र व कम कालखंड में मानो ज्ञान का एक बवंडर बनकर विश्वभर को ललकार रहे थे और सच में ही पूरा विश्व आंदोलित हुआ। साथ ही भारत का आजादी आंदोलन भी इनसे प्रेरणा पाकर स्पीड पकड़ चुका था।

छह साल बाद 1904 में स्वामी रामतीर्थ भारत लौट आए। यहाँ आपने जाती परंपरा पर कड़े प्रहार किए, औरतों की शिक्षा पर बल दिया, साथ ही भारतीय छात्रों को अमेरीकन विश्वविद्यालयों में छात्रवृति दिलवाने का काम वह अमेरिकी दौरों के दौरान पहले ही कर चुके थे।

कहते हैं कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने इनको आदर्श माना और क्रांतिवीर पं रामप्रसाद बिस्मिल्ल ने "युवा संन्यासी" शीर्षक से स्वामी राम के व्यक्तित्व पर कवितायें लिखी।

तो वहीं परमहंस योगानंद ने इन कविताओं का बंगाली में अनुवाद किया।

स्वामी रामतीर्थ 1906 में हिमालय चले गए, वहाँ 33 वर्ष की उम्र में मृत्यु हुई। कुछ का मानना है कि मृत्यु नहींं बल्कि उन्होंने माँ गंगा को खुद को समर्पित कर दिया था।

आगे उनके भांजे श्री H. W. L. Poonja (पापाजी) विश्वविख्यात आध्यात्मिक गुरू हुए जो रमण महर्षि के शिष्य थे, वर्तमान में पापाजी को उनके शिष्यों द्वारा मूजी बाबा के नाम से जाना जाता है।

मात्र संयोग नहीं होता किसी से मिलना, इसके पीछे होते हैं ये 5 अलौकिक कारण---दरअसल, कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हमारे जीवन में...
19/12/2022

मात्र संयोग नहीं होता किसी से मिलना, इसके पीछे होते हैं ये 5 अलौकिक कारण---

दरअसल, कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हमारे जीवन में हमेशा के लिए नहीं आते, उनका हमारे जीवन में आने का एक खास मकसद होता है और जब यह मकसद पूरा हो जाता है तब वह अपने आप ही हमारी लाइफ से दूर हो जाते हैं।

कभी आपने ये सोचा है कि कौन हैं ये लोग और क्या है इनका हमारे जीवन में आने का असली उद्देश्य?

ब्रह्मांडीय शक्ति:

कहा जाता है यह सब पहले से ही निर्धारित होता है कि कौन सा व्यक्ति किस समय हमारे जीवन में आएगा, लेकिन जब कोई अचानक हमारे जीवन में आता है तो यह मात्र कोई संयोग नहीं होता, इसके पीछे कई कारण होते हैं जो स्वयं ब्रह्मांडीय शक्ति द्वारा रचित हैं।

चलिए जानते हैं क्या हैं वो कारण--

हमें रोकने के लिए:

कई बार जो लोग हमारे जीवन में आते हैं उनका वास्तविक उद्देश्य हमें आगे बढ़ने से रोकना होता है। शायद हम जिस मार्ग पर चल रहे हैं वह हमारे लिए सही नहीं है, इसलिए ब्रह्मांड की कोई शक्ति मनुष्य रूप में हमारे सामने आती है और हमें रोकने की कोशिश करती है। ऐसी स्थिति में हमें एक बार अवश्य रुक कर अपने निर्णयों पर पुन: विचार करना चाहिए।

हमारे उद्देश्यों से मिलवाने के लिए:

कुछ लोग भले ही चंद मिनटों के लिए हमारे जीवन में आएँ लेकिन उनसे यह छोटी सी मुलाकात ही यह बताने के लिए काफी होती है कि हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है? ये हमारी आत्मा पर अपना गहरा प्रभाव डालते हैं।

हमें आगे बढ़ाने के लिए:

जब हम थक कर बैठ जाते हैं और पूरी तरह हार मान चुके होते हैं तब कोई हमारे जीवन में आता है और हमें एक बार फिर आगे बढ़ने का हौसला दे देता है। हमें फिर से खड़ा कर, हमारे मार्ग पर फिर से चलाकर वह वापिस चला जाता है। इसका अर्थ यही है कि वह हमें यह याद दिलाने आए हैं कि हमारा उद्देश्य हमारे लिए कितना जरूरी है।

जीवन की वास्तविकता:

कॉफी शॉप, बस, किसी दुकान, शॉपिंग मॉल, या राह चलते ऐसी ही रैंडम जगहों पर किसी अजनबी से एक मुलाकात और उससे कुछ देर की बात, हमें हमारे जीवन की वास्तविकता से रुबरू करवा देती है।

भविष्य और नियति:

जब हम अपने भविष्य और अपनी नियती के लिए तैयार होते हैं तब ब्रह्मांडीय शक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को हमारे जीवन में भेज देती है जो ताउम्र हमारे साथ रहता है। उसका और हमारा जीवन एक दूसरे से हमेशा के लिए जुड़ जाता है, यह कोई दोस्त, कोई परिजन या फिर आपका अपना जीवन साथी भी हो सकता है।

ब्रह्मांडीय ऊर्जा:

जितने भी बिंदु अभी हमने आपको बताए क्या आपको भी इनमें से किसी एक का अनुभव हुआ है?

क्या आपको भी किसी से मिलने पर ऐसी ही ब्रह्मांडीय ऊर्जा महसूस हुई है? अगर हाँ तो आप संवेदनशील व्यक्ति हैं। आप अपनी इस ऊर्जा को पहचानें।

#महादेव

मन का महाभारत!एक बड़ी प्रसिद्ध हंगेरियन कहानी है कि एक आदमी का विवाह हुआ। झगड़ालू प्रकृति का था, जैसे कि आदमी सामान्यत: हो...
02/12/2022

मन का महाभारत!

एक बड़ी प्रसिद्ध हंगेरियन कहानी है कि एक आदमी का विवाह हुआ। झगड़ालू प्रकृति का था, जैसे कि आदमी सामान्यत: होते हैं। माँ-बाप ने यह सोचकर कि शायद शादी हो जाए तो यह थोड़ा कम क्रोधी हो जाए, थोड़ा प्रेम में लग जाए, जीवन में उलझ जाए तो इतना उपद्रव न करे, शादी कर दी।

शादी तो हो गई। और आदमी झगड़ालू होते हैं, उससे ज्यादा झगडैल स्त्रियाँ होती हैं। झगड़ालू होना ही स्त्री का पूरा शास्त्र है, जिससे वह जीती है। माँ-बाप लड़की के भी यही सोचते थे कि विवाह हो जाए, घर-गृहस्थी बने, बच्चा पैदा हो, सुविधा हो जाएगी। उलझ जाएगी, तो झगड़ा कम हो जाएगा।

लेकिन जहाँ दो झगडैल व्यक्ति मिल जाएँ, वहाँ झगड़ा कम नहीं होता; दो गुना भी नहीं होता; अनंत गुना हो जाता है। जब दो झगड़ैल व्यक्ति मिलते हैं, तो जोड़ नहीं होता गणित का; दो और दो चार, ऐसा नहीं होता, गुणनफल हो जाता है।

पहली ही रात, सुहागरात, पहला ही भेंट में जो चीजें आई थीं, उनको खोलने को दोनों उत्सुक थे- पहला डब्बा हाथ में लिया; बड़े ढंग से पैक किया गया था। पति ने कहा कि रुको, यह रस्सी ऐसे न खुलेगी। मैं अभी चाकू ले आता हूँ।

पत्नी ने कहा कि ठहरो, मेरे घर में भी बहुत भेंटें आती रहीं। हम भी बहुत भेंटें देते रहे हैं। तुमने मुझे कोई नंगे-लुच्चो के घर से आया हुआ समझा है? ऐसे सुंदर फीते चाकुओं से नहीं काटे जाते, कैंची से काटे जाते हैं।

झगड़ा भयंकर हो गया कि फीता चाकू से कटे कि कैंची से कटे। दोनों की इज्जत का सवाल था। बात इतनी बढ़ गई कि डब्बा उस रात तो काटा ही न जा सका, सुहागरात भी नष्ट हो गई उसी झगड़े में। और विवाद, क्योंकि प्रतिष्ठा का सवाल था, दोनों के परिवार दाव पर लगे थे कि कौन सुसंस्कृत है!

वह बात इतनी बढ़ गई कि वर्षों तक झगड़ा चलता रहा। फिर तो बात ऐसी सुनिश्चित हो गई कि जब भी झगड़े की हालत आए, तो पति को इतना ही कह देना काफी था, चाकू! और पत्नी उसी वक्त चिल्लाकर कहती, कैंची! वे प्रतीक हो गए।

वर्षों खराब हो गए। आखिर पति के बरदाश्त के बाहर हो गया। और डब्बा अनखुला रखा है। क्योंकि जब तक यही तय न हो कि कैंची या चाकू तब तक वह खोला कैसे जाए। कौन खोलने की हिम्मत करे?

एक दिन बात बहुत बढ़ गई, तो पति समझा-बुझाकर झील के किनारे ले गया पत्नी को। नाव में बैठा, दूर जहाँ गहरा पानी था, वहाँ ले गया, और वहाँ जाकर बोला कि अब तय हो जाए। यह पतवार देखती है, इसको तेरी खोपड़ी में मारकर पानी में गिरा दूँगा। तैरना तू जानती नहीं है, मरेगी। अब क्या बोलती है? चाकू या कैंची? पत्नी ने कहा, कैंची।

जान चली जाए, लेकिन आन थोड़े ही छोड़ी जा सकती है! रघुकुल रीत सदा चली आई, जान जाय पर वचन न जाई।

पति भी उस दिन तय ही कर लिया था कि कुछ निपटारा कर ही लेना है। यह तो जिंदगी बर्बाद हो गई। और चाकू-कैंची पर बर्बाद हो गई!

लेकिन वह यही देखता है कि पत्नी बर्बाद करवा रही है। यह नहीं देखता कि मैं भी चाकू पर ही अटका हुआ हूँ अगर वह कैंची पर अटकी है। तो दोनों कुछ बहुत भिन्न नहीं हैं। पर खुद का दोष तो युद्ध के क्षण में, विरोध के क्षण में, क्रोध के क्षण में दिखाई नहीं पड़ता। उसने पतवार जोर से मारी, पत्नी नीचे गिर गई। उसने कहा, अभी भी बोल दे! तो भी उसने डूबते हुए आवाज दी, कैंची।

एक डुबकी खाई, मुँह-नाक में पानी चला गया। फिर ऊपर आई। फिर भी पति ने कहा, अभी भी जिंदा है। अभी भी मैं तुझे बचा सकता हूँ? बोल! उसने कहा, कैंची।

अब पूरी आवाज भी नहीं निकली, क्योंकि मुँह में पानी भर गया। तीसरी डुबकी खाई, ऊपर आई। पति ने कहा, अभी भी कह दे, क्योंकि यह आखिरी मौका है! अब वह बोल भी नहीं सकती थी। डूब गई। लेकिन उसका एक हाथ उठा रहा और दोनों अंगुलियों से कैंची चलती रही। दोनों अंगुलियों से वह कैंची बताती रही डूबते-डूबते, आखिरी क्षण में।

महाभारत के लिए कोई कुरुक्षेत्र नहीं चाहिए; महाभारत तुम्हारे मन में है। क्षुद्र पर तुम लड़ रहे हो। तुम्हें लड़ने के क्षण में दिखाई भी नहीं पड़ता कि किस क्षुद्रता के लिए तुमने आग्रह खड़ा कर लिया है।

और जब तक तुम्हारा अज्ञान गहन है, अंधकार गहन है, अहंकार सघन है, तब तक तुम देख भी न पाओगे कि तुम्हारा पूरा जीवन एक कलह है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, तुम जीते नहीं, सिर्फ लड़ते हो। कभी-कभी तुम दिखलाई पड़ते हो कि लड़ नहीं रहे हो, वे लड़ने की तैयारी के क्षण होते हैं; जब तुम तैयारी करते हो।

---ओशो

शिकायत और प्रसन्नता!मैं तुमसे एक कहानी कहता हूँ एक बहुत सुंदर कहानी। इसे जितना संभव हो सके उतनी गहराई से सुनो।एक महिला औ...
23/11/2022

शिकायत और प्रसन्नता!

मैं तुमसे एक कहानी कहता हूँ एक बहुत सुंदर कहानी। इसे जितना संभव हो सके उतनी गहराई से सुनो।

एक महिला और उसका छोटा सा बच्चा समुंद्र की लहरों पर अठखेलियाँ कर रहे थे, और पानी का बहाव काफी तेज था। उसने अपने पुत्र की बाँह मजबूती से पकड़ रखी थी और वे प्रसन्नतापूर्वक जलक्रीड़ा में संलग्न थे, कि अचानक पानी की एक विशाल भयानक तरंग उनके सामने प्रकट हुई।

उन्होंने भयाक्रांत होकर उसको देखा, ज्वार की यह लहर उनके ठीक सामने ही ऊपर और ऊपर उठती चली गई, और उनके ऊपर छा गई। जब पानी वापस लौट गया तो वह छोटा बच्चा कहीं दिखाई नहीं पड़ा। शोकाकुल माँ ने मेल्विन, मेल्विन तुम कहाँ हो? मेल्विन! चिल्लाते हुए पानी में हर तरफ उसको खोजा। जब यह स्पष्ट हो गया कि बच्चा खो गया है, उसे पानी सागर में बहा ले गया है।

तब पुत्र के वियोग में व्याकुल माँ ने अपनी आँखें आकाश की ओर उठाई और प्रार्थना की, 'ओह, प्रिय और दयालु परम पिता, कृपया मुझ पर रहम कीजिए और मेरे प्यारे से बच्चे को वापस कर दीजिए। आपसे मैं आपके प्रति शाश्वत आभार का वादा करती हूँ। मैं वादा करती हूँ कि मैं अपने पति को पुन: कभी धोखा नहीं दूँगी; मैं अब अपने आयकर को जमा करने में दुबारा कभी धोखा नहीं करूँगी; मैं अपनी सास के प्रति दयालु रहूँगी; मैं सिगरेट पीना और सारे व्यसन छोड़ दूँगी! सभी गलत शौक छोड़ दूँगी, बस केवल कृपा करके मेरा पक्ष लीजिए और मेरे पुत्र को लौटा दीजिए।’

बस तभी पानी की एक और दीवार प्रकट हुई और उसके सिर पर गिर पड़ी। जब पानी वापस लौट गया तो उसने अपने छोटे से बेटे को वहाँ पर खड़ा हुआ देखा। उसने उसको अपनी छाती से लगाया, उसको चूमा और अपने से चिपटा लिया। फिर उसने उसे एक क्षण को देखा और एक बार फिर अपनी निगाहें स्वर्ग की ओर उठा दीं। ऊपर की ओर देखते हुए उसने कहा, लेकिन उसने हैट लगा रखा था।

मन यही है, बच्चा वापस आ गया है, लेकिन हैट खो गया है। अब वह इसलिए प्रसन्न नहीं है कि बेटा लौट आया है, बल्कि अप्रसन्न है कि हैट खो गया था- फिर शिकायत।

क्या तुमने कभी देखा है कि तुम्हारे मन के भीतर यही हो रहा है या नहीं? सदा ऐसा ही हो रहा है। जीवन तुमको जो कुछ भी देता है उसके लिए तुम धन्यवाद नहीं देते। तुम बार-बार हैट के बारे में शिकायत कर रहे हो। तुम लगातार उसी को देखते जाते हो जो नहीं हुआ है, उसको नहीं देखते जो हो चुका है।

तुम सदैव देखते हो और इच्छा करते हो और अपेक्षा करते हो, लेकिन तुम कभी आभारी नहीं होते। तुम्हारे लिए लाखों बातें घटित हो रही हैं, लेकिन तुम कभी आभारी नहीं होते। तुम सदैव चिड़चिड़ाहट और शिकायत से भरे रहते हो, और सदा ही तुम हताशा की अवस्था में रहते हो।

--ओशो

22/11/2022

महसूस कीजिए ऊर्जा के नाद को...

दक्षिण भारत के तमाम मंदिरों में जब पारम्परिक वाद्य यंत्र बजते हैं तो ऊपर उठती ऊर्जा में सराबोर हुआ जा सकता है, बस महसूस किया जा सकता है।

वैसे भी दक्षिण के मंदिरों ने सनातन परंपरा के मूल को आज भी अक्षुण्य रखा है। जो गौरव का विषय है।

"जो माँ-बाप चौबीस घंटे में घंटे दो घंटे को भी मौन होकर नहीं बैठते, उनके बच्चों के जीवन में मौन नहीं हो सकता। जो माँ-बाप ...
21/11/2022

"जो माँ-बाप चौबीस घंटे में घंटे दो घंटे को भी मौन होकर नहीं बैठते, उनके बच्चों के जीवन में मौन नहीं हो सकता। जो माँ-बाप घंटे दो घंटे को घर में प्रार्थना में लीन नहीं हो जाते हैं, ध्यान में नहीं चले जाते हैं, उनके बच्चे कैसे अंतर्मुखी हो सकेंगे?

बच्चे देखते है माँ-बाप को कलह करते हुए, द्वंद्व करते हुए, संघर्ष करते हुए, लड़ते हुए, दुर्वचन बोलते हुए बच्चे देखते हैं, माँ-बाप के बीच कोई गहरा प्रेम संबंध नहीं देखते, कोई शांति नहीं देखते, कोई आनंद नहीं देखते; उदासी, ऊब, घबड़ाहट, परेशानी देखते हैं। ठीक इसी तरह की जीवन दिशा उनकी हो जाती है।

बच्चों को बदलना हो तो खुद को बदलना जरुरी है। अगर बच्चों से प्रेम हो तो खुद को बदल लेना एकदम जरुरी है। जब तक आपके कोई बच्चा नहीं था, तब आपकी कोई जिम्मेवारी नहीं थी।

बच्चा होने के बाद एक अदभुत जिम्मेवारी आपके ऊपर आ गई। एक पूरा जीवन बनेगा या बिगड़ेगा। और वह आप पर निर्भर हो गया। अब आप जो भी करेंगी उसका परिणाम उस बच्चे पर होगा।

अगर वह बच्चा बिगड़ा, अगर वह गलत दिशाओं में गया, अगर दुःख और पीड़ा में गया, तो पाप किसके ऊपर होगा? बच्चे को पैदा करना आसान, लेकिन ठीक अर्थो में माँ बनना बहुत कठिन है।

बच्चे को पैदा करना तो बहुत आसान है पशु-पक्षी भी करते हैं, मनुष्य भी करतें है, भीड़ बढ़ती जाती है दुनिया में। लेकिन इस भीड़ से कोई हल नहीं है। माँ होना बहुत कठिन है ।

अगर दुनिया में कुछ स्त्रियाँ भी माँ हो सकें तो सारी दुनिया दूसरी हो सकती है। माँ होने का अर्थ है; इस बात का उतरदायित्व कि जिस जीवन को मैंने जन्म दिया है, अब उस जीवन को उंचे से उंचे स्तरों तक, परमात्मा तक पहुँचाने की दिशा पर ले जाना मेरा कर्तव्य है।

और इस कर्तव्य की छाया में मुझे खुद को बदलना होगा। क्योकिं कोई भी व्यक्ति जो दूसरे को बदलना चाहता हो उसे अपने को बदले बिना कोई रास्ता नहीं है।"

---ओशो

20/11/2022

भजन संध्या: तापी प्रोजेक्ट....

महिंद्रा कबीरा फेस्टिवल!

19/11/2022

आदि शंकरा : कर्नाटक संगीत

महिंद्रा कबीरा फेस्टिवल, वाराणसी

जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग!तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग!
19/11/2022

जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग!
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग!

बुद्ध के पास हजारों लोगों ने संन्यास में दीक्षा ली। बुद्ध कहते थे उन संन्यासियों को कि तुम जो कर रहे हो ध्यान रखना, जो त...
19/11/2022

बुद्ध के पास हजारों लोगों ने संन्यास में दीक्षा ली। बुद्ध कहते थे उन संन्यासियों को कि तुम जो कर रहे हो ध्यान रखना, जो तुम्हारे पास था उसे छोड़ रहे हो, लेकिन मैं तुम्हें कुछ दे नहीं रहा हूँ। अनेक बार तो अनेक लोग वापस बुद्ध के पास से लौट जाते थे। क्योंकि आदमी के तर्क के बाहर हो गई यह बात। आदमी छोड़ने को राजी है, अगर कुछ मिलता हो।

बुद्ध से लोग पूछते थे कि हम घर छोड़ देंगे, मिलेगा क्या? हम धन छोड़ देंगे, मिलेगा क्या? हम सब छोड़ने को तैयार हैं, फल क्या होगा? हम सारा जीवन लगा देंगे ध्यान में, योग में, तप में, इसकी फलश्रुति क्या है, निष्पत्ति क्या है? लाभ क्या है, यह तो बता दें।

तो बुद्ध कहते थे, जब तक तुम लाभ पूछते हो तब तक तुम जहाँ हो वहीं रहो, वही बेहतर है। क्योंकि लाभ को पूछने वाला मन ही संसार है। लाभ को खोजने वाला मन ही संसार है। तुम यहाँ मेरे पास भी आए हो तो तुम लाभ को ही खोजते आए हो!

लेकिन यही व्यक्ति अगर किसी और साधारण साधु-संन्यासी के पास गए होते तो वह कहता, ठीक है, इसमें क्या रखा है, यह क्षणभंगुर है, असली स्त्रियाँ तो स्वर्ग में हैं, उनको पाना हो तो इनको छोड़ो। यह तू जो भोजन का सुख ले रहा है, इसमें क्या रखा है!

यह तो साधारण-सा स्वाद है, फिर कल भूख लग आएगी, असली स्वाद लेना हो तो कल्पवृक्ष हैं स्वर्ग में, उनके नीचे बैठो। और यह धन तू क्या पकड़ रहा है! इस धन में कुछ भी नहीं, ठीकरे हैं। असली धन पाना हो, तो पुण्य कमाओ। और यहाँ क्या मकान बना रहा है! यह तो सब रेत पर बनाए गए मकान हैं। अगर स्थाई सीमेंट-कांक्रीट के ही बनाने हों तो स्वर्ग में बनाओ।

वहाँ फिर कभी, जो बन गया बन गया, फिर कभी मिटता नहीं। यह जो साधारण साधु-संन्यासी लोगों को समझा रहे है, यह मोक्ष की भाषा नहीं है, यह लोभ की ही भाषा है। यह संसार की ही भाषा है। यह गणित बिलकुल सांसारिक है। इसीलिए हमको जँचता भी है। इसीलिए हमें पकड़ में भी आ जाता है।

लेकिन बुद्ध के पास जब कोई जाता था ऐसी ही भाषा पूछने, तो बुद्ध से लोग पूछते थे- और हमें लगता है कि ठीक ही पूछते हैं- वे पूछते हैं कि हम जीवनभर तप करें, ध्यान करें, योग करें, फिर होगा क्या? मोक्ष में मिलेगा क्या?

और बुद्ध कहते हैं कि मोक्ष में! मोक्ष में मिलने की बात ही मत पूछो। क्योंकि तुमने मिलने की बात पूछी कि तुम संसार में चले गए। तुमने मिलने की बात पूछी कि तुम्हारा ध्यान ही संसार में हो गया, मोक्ष से कोई संबंध न रहा। मोक्ष की बात तो तुम उस दिन पूछो, जिस दिन तुम्हारी तैयारी हो छोड़ने की, और पाने की नहीं। जिस दिन तुम तैयार हो कि मैं छोड़ता तो हूँ और पाने के लिए नहीं पूछता, उस दिन तुम्हें मोक्ष मिल जाएगा। और क्या मिलेगा मोक्ष में, यह मुझसे मत पूछो, यह तुम पा लो और जानो।

बहुत लोग लौट गए। आते थे, लौट जाते थे। यह आदमी बेबूझ मालूम पड़ने लगा। लोगों ने कहा, कुछ भी न हो, कम-से-कम आनंद तो मिलेगा। बुद्ध कहते थे, आनंद भी नहीं, इतना ही कहता हूँ- वहाँ दुख न होगा। बुद्ध की सारी-की-सारी भाषा संसार से उठी हुई भाषा है। और शायद पृथ्वी पर किसी दूसरे आदमी ने इतनी गैर-सांसारिक भाषा का प्रयोग नहीं किया।

इसलिए हमारे इस बहुत बड़े धार्मिक मुल्क में भी बुद्ध के पैर न जम पाए। इस बड़े धार्मिक मुल्क में, जो हजारों साल से धार्मिक है। लेकिन उसके धर्म की तथाकथित भाषा बिलकुल सांसारिक है। तो बुद्ध जैसा व्यक्ति, पैर नहीं जमा पाए, बुद्ध की जड़ें नहीं जम पायीं, क्योंकि बुद्ध हमारी भाषा में नहीं बोल पाए।

और चीन और जापान में जाकर बुद्ध की जड़ें जमीं, उसका कारण यह नहीं कि चीन और जापान में लोग उनकी भाषा समझ पाए, बौद्ध भिक्षु अनुभव से समझ गए कि यह भाषा बोलनी ही नहीं बुद्ध की। उन्होंने जाकर वहाँ लोभ की भाषा बोलनी शुरू कर दी।

चीन में और जापान में बुद्ध के पैर जमे उन बौद्ध भिक्षुओं की वजह से, जिन्होंने बुद्ध की भाषा छोड़ दी। उन्होंने फिर संसार की भाषा बोलनी शुरू कर दी। उन्होंने कहा, आनंद मिलेगा, सुख मिलेगा, महासुख मिलेगा और यह मिलेगा, और यह मिलेगा और मिलने की भाषा की, तो चीन और जापान और बर्मा और लंका- भारत के बाहर पूरे एशिया में- बुद्ध के पैर जमे; लेकिन वे बुद्ध के पैर ही नहीं हैं। बुद्ध के पैर थे, वह जमे नहीं। जो जमे, वह बुद्ध के पैर नहीं हैं।

बुद्ध कहते थे, आनंद? नहीं आनंद नहीं, 'दुख—निरोध। लोग पूछते थे, न सही आनंद, कम-से-कम आत्मा तो बचेगी? मैं तो बचूँगा? इतना तो आश्वासन दे दें।

बुद्ध कहते थे, तुम तो हो एक बीमारी, तुम कैसे बचोगे? तुम तो मिट जाओगे, तुम तो खो जाओगे। और जो बचेगा, वह तुम नहीं हो। यह कठिन था समझना। बुद्ध ठीक ही कहते हैं। वे कहते हैं कि आदमी का लोभ इतना तीव्र है कि वह यह भी राजी हो जाता है कि कोई हर्ज नहीं है कुछ भी न मिले, लेकिन कम-से-कम मैं तो बचूँ। मैं बचा रहा तो कुछ-न-कुछ उपाय, इंतजाम वहाँ भी कर ही लेंगे। लेकिन अगर मैं ही न बचा, तब तो सारी साधना ही व्यर्थ हो 'जाती है।

साधना भी हमें सार्थक मालूम होती है यदि कोई प्रयोजन, कोई फल, कोई निष्पत्ति आती हो, कोई लाभ मिलता हो। लाभ की भाषा लोभ की भाषा है। और जहाँ तक लाभ की भाषा चलती है वहाँ तक लोभ चलता है। जहाँ तक लोभ चलता है, वहाँ तक क्षोभ होता ही रहेगा।

क्यों? क्योंकि हम एक बिलकुल ही गलत दिशा में निकल गए हैं, जहाँ मौलिक जीवन का स्रोत नहीं है। मौलिक जीवन का स्रोत वहाँ है, जिसे पकड़ने की जरूरत ही नहीं है, जो हमारे भीतर मौजूद है, अभी और यहीं।

सिर्फ हम अगर सब छोडकर खड़े हो जाएँ सब पकड़ छोड़कर खड़े हो जाएँ तो वह द्वार अभी खुल जाए। जिसे हम खोज-खोजकर नहीं खोज पाते हैं, वह हमें अभी मिल जाए। वह मिला ही हुआ है; वह यहीं, अभी, हमारे भीतर ही मौजूद है। लेकिन हम बाहर पकड़ने में व्यस्त हैं!

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