19/11/2022
बुद्ध के पास हजारों लोगों ने संन्यास में दीक्षा ली। बुद्ध कहते थे उन संन्यासियों को कि तुम जो कर रहे हो ध्यान रखना, जो तुम्हारे पास था उसे छोड़ रहे हो, लेकिन मैं तुम्हें कुछ दे नहीं रहा हूँ। अनेक बार तो अनेक लोग वापस बुद्ध के पास से लौट जाते थे। क्योंकि आदमी के तर्क के बाहर हो गई यह बात। आदमी छोड़ने को राजी है, अगर कुछ मिलता हो।
बुद्ध से लोग पूछते थे कि हम घर छोड़ देंगे, मिलेगा क्या? हम धन छोड़ देंगे, मिलेगा क्या? हम सब छोड़ने को तैयार हैं, फल क्या होगा? हम सारा जीवन लगा देंगे ध्यान में, योग में, तप में, इसकी फलश्रुति क्या है, निष्पत्ति क्या है? लाभ क्या है, यह तो बता दें।
तो बुद्ध कहते थे, जब तक तुम लाभ पूछते हो तब तक तुम जहाँ हो वहीं रहो, वही बेहतर है। क्योंकि लाभ को पूछने वाला मन ही संसार है। लाभ को खोजने वाला मन ही संसार है। तुम यहाँ मेरे पास भी आए हो तो तुम लाभ को ही खोजते आए हो!
लेकिन यही व्यक्ति अगर किसी और साधारण साधु-संन्यासी के पास गए होते तो वह कहता, ठीक है, इसमें क्या रखा है, यह क्षणभंगुर है, असली स्त्रियाँ तो स्वर्ग में हैं, उनको पाना हो तो इनको छोड़ो। यह तू जो भोजन का सुख ले रहा है, इसमें क्या रखा है!
यह तो साधारण-सा स्वाद है, फिर कल भूख लग आएगी, असली स्वाद लेना हो तो कल्पवृक्ष हैं स्वर्ग में, उनके नीचे बैठो। और यह धन तू क्या पकड़ रहा है! इस धन में कुछ भी नहीं, ठीकरे हैं। असली धन पाना हो, तो पुण्य कमाओ। और यहाँ क्या मकान बना रहा है! यह तो सब रेत पर बनाए गए मकान हैं। अगर स्थाई सीमेंट-कांक्रीट के ही बनाने हों तो स्वर्ग में बनाओ।
वहाँ फिर कभी, जो बन गया बन गया, फिर कभी मिटता नहीं। यह जो साधारण साधु-संन्यासी लोगों को समझा रहे है, यह मोक्ष की भाषा नहीं है, यह लोभ की ही भाषा है। यह संसार की ही भाषा है। यह गणित बिलकुल सांसारिक है। इसीलिए हमको जँचता भी है। इसीलिए हमें पकड़ में भी आ जाता है।
लेकिन बुद्ध के पास जब कोई जाता था ऐसी ही भाषा पूछने, तो बुद्ध से लोग पूछते थे- और हमें लगता है कि ठीक ही पूछते हैं- वे पूछते हैं कि हम जीवनभर तप करें, ध्यान करें, योग करें, फिर होगा क्या? मोक्ष में मिलेगा क्या?
और बुद्ध कहते हैं कि मोक्ष में! मोक्ष में मिलने की बात ही मत पूछो। क्योंकि तुमने मिलने की बात पूछी कि तुम संसार में चले गए। तुमने मिलने की बात पूछी कि तुम्हारा ध्यान ही संसार में हो गया, मोक्ष से कोई संबंध न रहा। मोक्ष की बात तो तुम उस दिन पूछो, जिस दिन तुम्हारी तैयारी हो छोड़ने की, और पाने की नहीं। जिस दिन तुम तैयार हो कि मैं छोड़ता तो हूँ और पाने के लिए नहीं पूछता, उस दिन तुम्हें मोक्ष मिल जाएगा। और क्या मिलेगा मोक्ष में, यह मुझसे मत पूछो, यह तुम पा लो और जानो।
बहुत लोग लौट गए। आते थे, लौट जाते थे। यह आदमी बेबूझ मालूम पड़ने लगा। लोगों ने कहा, कुछ भी न हो, कम-से-कम आनंद तो मिलेगा। बुद्ध कहते थे, आनंद भी नहीं, इतना ही कहता हूँ- वहाँ दुख न होगा। बुद्ध की सारी-की-सारी भाषा संसार से उठी हुई भाषा है। और शायद पृथ्वी पर किसी दूसरे आदमी ने इतनी गैर-सांसारिक भाषा का प्रयोग नहीं किया।
इसलिए हमारे इस बहुत बड़े धार्मिक मुल्क में भी बुद्ध के पैर न जम पाए। इस बड़े धार्मिक मुल्क में, जो हजारों साल से धार्मिक है। लेकिन उसके धर्म की तथाकथित भाषा बिलकुल सांसारिक है। तो बुद्ध जैसा व्यक्ति, पैर नहीं जमा पाए, बुद्ध की जड़ें नहीं जम पायीं, क्योंकि बुद्ध हमारी भाषा में नहीं बोल पाए।
और चीन और जापान में जाकर बुद्ध की जड़ें जमीं, उसका कारण यह नहीं कि चीन और जापान में लोग उनकी भाषा समझ पाए, बौद्ध भिक्षु अनुभव से समझ गए कि यह भाषा बोलनी ही नहीं बुद्ध की। उन्होंने जाकर वहाँ लोभ की भाषा बोलनी शुरू कर दी।
चीन में और जापान में बुद्ध के पैर जमे उन बौद्ध भिक्षुओं की वजह से, जिन्होंने बुद्ध की भाषा छोड़ दी। उन्होंने फिर संसार की भाषा बोलनी शुरू कर दी। उन्होंने कहा, आनंद मिलेगा, सुख मिलेगा, महासुख मिलेगा और यह मिलेगा, और यह मिलेगा और मिलने की भाषा की, तो चीन और जापान और बर्मा और लंका- भारत के बाहर पूरे एशिया में- बुद्ध के पैर जमे; लेकिन वे बुद्ध के पैर ही नहीं हैं। बुद्ध के पैर थे, वह जमे नहीं। जो जमे, वह बुद्ध के पैर नहीं हैं।
बुद्ध कहते थे, आनंद? नहीं आनंद नहीं, 'दुख—निरोध। लोग पूछते थे, न सही आनंद, कम-से-कम आत्मा तो बचेगी? मैं तो बचूँगा? इतना तो आश्वासन दे दें।
बुद्ध कहते थे, तुम तो हो एक बीमारी, तुम कैसे बचोगे? तुम तो मिट जाओगे, तुम तो खो जाओगे। और जो बचेगा, वह तुम नहीं हो। यह कठिन था समझना। बुद्ध ठीक ही कहते हैं। वे कहते हैं कि आदमी का लोभ इतना तीव्र है कि वह यह भी राजी हो जाता है कि कोई हर्ज नहीं है कुछ भी न मिले, लेकिन कम-से-कम मैं तो बचूँ। मैं बचा रहा तो कुछ-न-कुछ उपाय, इंतजाम वहाँ भी कर ही लेंगे। लेकिन अगर मैं ही न बचा, तब तो सारी साधना ही व्यर्थ हो 'जाती है।
साधना भी हमें सार्थक मालूम होती है यदि कोई प्रयोजन, कोई फल, कोई निष्पत्ति आती हो, कोई लाभ मिलता हो। लाभ की भाषा लोभ की भाषा है। और जहाँ तक लाभ की भाषा चलती है वहाँ तक लोभ चलता है। जहाँ तक लोभ चलता है, वहाँ तक क्षोभ होता ही रहेगा।
क्यों? क्योंकि हम एक बिलकुल ही गलत दिशा में निकल गए हैं, जहाँ मौलिक जीवन का स्रोत नहीं है। मौलिक जीवन का स्रोत वहाँ है, जिसे पकड़ने की जरूरत ही नहीं है, जो हमारे भीतर मौजूद है, अभी और यहीं।
सिर्फ हम अगर सब छोडकर खड़े हो जाएँ सब पकड़ छोड़कर खड़े हो जाएँ तो वह द्वार अभी खुल जाए। जिसे हम खोज-खोजकर नहीं खोज पाते हैं, वह हमें अभी मिल जाए। वह मिला ही हुआ है; वह यहीं, अभी, हमारे भीतर ही मौजूद है। लेकिन हम बाहर पकड़ने में व्यस्त हैं!
Rudraksh Foundation