01/11/2022
मानव शरीर में अद्भुत पांच कोषों का ज्ञान। 👇👇👇
* पांच कोष हैं, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्द/ज्ञानमय। यह पांच आवरण भी कहे गए हैं, चैतन्य आत्मा के।
* प्रथम है अन्नमय, अर्थात् पांच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों से युक्त बाह्य शरीर जो सात तत्त्वों से बना है, रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र/रज।
* प्राण वायु के संचार से अन्नमय शरीर जीवित प्राणी है। मन वृत्तियों का समुद्र है, भाव सागर है, अन्नमय शरीर का भोक्ता है दश इन्द्रियों से।
* मनोमय कोष आवृत है पंच तन्मात्राओं से। यह हैं, गंध, रस, रूप, स्पर्श और स्वर। यह क्रमशः पंच महाभूतों/तत्त्वों की द्योतक हैं, यथा, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश।
* मन पर विजय वैराग्य से, अर्थात् पंच तन्मात्राओं में विरक्ति से संभव होता है। इसका साधन है प्राणायाम, जिससे सूक्ष्म प्राण प्रकट होता है। यह है प्राणमय कोष।इस प्राण तत्त्व पर विजय पाना ध्यान-योगी का लक्ष्य है।
* तीन महाबंध, मूल, उड्डियान और जलन्धर, तथा खेचरी व शक्तिचालिनी मुद्राओं के साथ, बाह्य केवल कुंभक व मूर्छा प्राणायाम की सहायता से सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत होती है।
* सुषुम्ना में ऊर्ध्व अनाहत चक्र स्थित है, जहाँ जीवभाव से परे चैतन्य आत्मा प्रकट होता है। प्राण वायु जीव के लिए आवश्यक है, चैतन्य आत्मा के लिए नहीं।
* यह योग भूमिका प्राण-जय कहलाती है। प्राण मन के साथ बंधा हुआ है। प्राण-जय से मन पर भी विजय प्राप्त होती है।
* प्राण-जय सिद्धि से योगी अनन्त काल तक अपनी चैतन्य आत्मा में स्थित रहता है बिना पुनर्जन्म के और अन्य सभी विशिष्ट सिद्धियों का स्वामी भी बन सकता है। यह है विज्ञानमय कोष, आध्यात्मिक सिद्धियों का कोष। वेद विज्ञानमय हैं, प्रकृति को, उसके उपयोग को, प्रकाशित करते हैं।
* यह महर्षि पद है ध्यान-योगी के लिए। महेश्वर/सदाशिव व महाविष्णु पद भी उपलब्ध होते हैं निष्काम योगी को। यह है आनन्दमय/ज्ञानमय कोष।
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